पंजाब में दलितों की सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक स्थिति
एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
भारत के पंजाब में दलितों की सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक स्थिति, जनसांख्यिकीय ताकत, प्रणालीगत हाशिए पर होने और विकसित हो रही राजनीतिक गतिशीलता के जटिल अंतर्संबंध को दर्शाती है। उपलब्ध जानकारी के आधार पर नीचे एक संक्षिप्त अवलोकन दिया गया है:
सामाजिक-आर्थिक स्थिति
- जनसांख्यिकीय महत्व: दलित पंजाब की आबादी का लगभग 32% हिस्सा हैं, जो किसी भी भारतीय राज्य का सबसे अधिक अनुपात है, जिसमें प्रमुख जातियाँ मज़हबी सिख और चमार शामिल हैं।
- आर्थिक हाशिए पर होना: अपनी संख्यात्मक ताकत के बावजूद, दलितों के पास पंजाब में 2-3.5% से भी कम कृषि भूमि है, जबकि प्रमुख जट जाति (जनसंख्या का लगभग 20%) के पास लगभग 95% भूमि है। अधिकांश दलित भूमिहीन मज़दूर हैं, जो अक्सर कम वेतन वाली नौकरियाँ करते हैं, जो आर्थिक असमानता को बढ़ाता है। फसलों के लिए उच्च न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) उन्हें शुद्ध खाद्य खरीदारों के रूप में और नुकसान पहुँचा सकता है यदि मजदूरी दर बढ़ाई नहीं जाती।
- सामाजिक बहिष्कार: दलितों को लगातार जाति-आधारित भेदभाव का सामना करना पड़ता है, जिसमें अलग श्मशान घाट और कुछ गुरुद्वारों (सिख पूजा स्थल) तक सीमित पहुँच शामिल है। शहरी क्षेत्रों में भी दलितों को अक्सर सामाजिक और स्थानिक रूप से अलग-थलग कर दिया जाता है।
- व्यावसायिक बदलाव: कई दलित पारंपरिक जाति-आधारित व्यवसायों और कृषि अर्थव्यवस्था से दूर चले गए हैं, और वैकल्पिक आजीविका की तलाश कर रहे हैं। हालाँकि, संसाधनों और अवसरों तक सीमित पहुँच के कारण इससे उनकी आर्थिक स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ है।
- सरकारी सहायता: MGNREGA (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम), आवास भूखंड, पेंशन और पोस्ट-मैट्रिक छात्रवृत्ति जैसी पहलों का उद्देश्य दलितों का उत्थान करना है, लेकिन कार्यान्वयन में अंतराल उनके प्रभाव को सीमित करता है।
राजनीतिक स्थिति
- राजनीतिक भागीदारी: पंजाब में दलितों को ऐतिहासिक रूप से राजनीतिक हाशिए पर रखा गया है, जहाँ उनकी आबादी के बावजूद सरकार में उनका प्रतिनिधित्व 10% से भी कम है। पंजाब की 117 विधानसभा सीटों में से 34 अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित हैं, जो उनके जनसांख्यिकीय वजन को दर्शाता है, लेकिन जरूरी नहीं कि उनका प्रभाव भी हो।
- राजनीतिक लामबंदी: पंजाब में दलित राजनीति विकसित हो रही है, जिसमें उनके वोट बैंक को मजबूत करने के प्रयास किए जा रहे हैं। कांग्रेस पार्टी द्वारा 2021 में चरणजीत सिंह चन्नी को पंजाब के पहले दलित मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्त करना दलित मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए एक रणनीतिक कदम के रूप में देखा गया था, हालांकि इसके दीर्घकालिक प्रभाव पर बहस जारी है। "चन्नी प्रयोग" की विफलता पंजाब में दलित पहचान और राजनीतिक आकांक्षाओं की जटिलता को उजागर करती है) ।
- जाति और राजनीतिक गतिशीलता: राजनीतिक भागीदारी जातिगत संघर्षों से आकार लेती है, जो अक्सर भूमि और सामाजिक समानता की मांगों में निहित होती है। पंजाब में दलित राजनीतिक आंदोलन खंडित हैं, जिनमें से कुछ मुख्यधारा की पार्टियों के साथ गठबंधन करते हैं और अन्य क्षेत्रीय या जाति-आधारित संगठनों के माध्यम से स्वायत्तता चाहते हैं।
- सांस्कृतिक और धार्मिक प्रभाव: डेरे (धार्मिक संप्रदाय) दलित समुदायों को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, राजनीतिक गठबंधन को प्रभावित करते हुए आध्यात्मिक और सामाजिक समर्थन प्रदान करते हैं। यह दलित राजनीतिक पहचान में जटिलता की एक परत जोड़ता है।
मुख्य चुनौतियाँ
- भूमि असमानता: भूमि स्वामित्व में भारी अंतर (जैसे, दलितों के पास 0.72-3.5% भूमि है, जबकि जटटों के पास 95% भूमि है) आर्थिक और सामाजिक असमानता को बढ़ावा देता है।
- सामाजिक कलंक: संवैधानिक सुरक्षा और सकारात्मक कार्रवाई के बावजूद, जाति-आधारित भेदभाव जारी है, जो सामाजिक गतिशीलता को सीमित करता है।
- राजनीतिक विखंडन: दलितों के पास संख्यात्मक ताकत तो है, लेकिन आंतरिक विभाजन और एकजुट नेतृत्व की कमी के कारण उनका राजनीतिक प्रभाव कम हो गया है)।
हाल के घटनाक्रम
- एक्स और वेब स्रोतों पर पोस्ट दलित मुद्दों के बारे में बढ़ती जागरूकता को दर्शाते हैं, जिसमें बेहतर भूमि पुनर्वितरण, आर्थिक अवसर और राजनीतिक प्रतिनिधित्व की मांग की गई है। हालांकि, प्रणालीगत बाधाएं और प्रमुख जातियों का प्रतिरोध प्रगति में बाधा डालना जारी रखता है।
- 2022 के पंजाब चुनावों ने दलित वोटों की राजनीतिक गतिशीलता को नया आकार देने की क्षमता को उजागर किया, हालांकि परिणाम सीमित संरचनात्मक परिवर्तन का संकेत देते हैं।
निष्कर्ष
पंजाब में दलित एक महत्वपूर्ण जनसांख्यिकीय समूह हैं, लेकिन सीमित भूमि स्वामित्व, व्यावसायिक प्रतिबंधों और सामाजिक बहिष्कार के कारण सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित हैं। राजनीतिक रूप से, वे दृश्यता प्राप्त कर रहे हैं, लेकिन संख्यात्मक शक्ति को आनुपातिक शक्ति में बदलने में चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। सरकारी योजनाओं और राजनीतिक लामबंदी के माध्यम से चल रहे प्रयासों का उद्देश्य इन मुद्दों को संबोधित करना है, लेकिन गहरी जड़ें जमाए हुए जातिगत पदानुक्रम और आर्थिक असमानताएँ लगातार बाधाएँ खड़ी करती हैं।
साभार: grok.com
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