सोमवार, 10 अक्तूबर 2022

नवबौद्धों की बाईस प्रतिज्ञाओं में गलत क्या है?

 

नवबौद्धों की बाईस प्रतिज्ञाओं में गलत क्या है?

(कँवल भारती)

जिन बाईस प्रतिज्ञाओं के लिए भाजपाइयों ने दिल्ली सरकार के मंत्री राजेंद्रपाल गौतम के खिलाफ हंगामा खड़ा कर दिया, जिसके चलते उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा, उसमें ऐसा क्या है, जो आपत्तिजनक है? भाजपाइयों के इस विरोध से दो बातें साफ़ होती हैं, पहली यह कि भाजपा वास्तव में ‘बौद्धिक-विरोधी’ पार्टी है, और बकौल इतिहासकार रामचन्द्र गुहा, ‘मोदी सरकार देश की सबसे बड़ी बौद्धिक-विरोधी सरकार है.’ दूसरी बात यह साफ होतीं है कि भाजपाइयों को केवल हिंदुत्व का विचार पसंद है, बाकी सारी विचारधाराएँ उनके लिए दुश्मन की तरह हैं. वे अपने विरोधियों को सत्ता के खौफ से, यानी पुलसिया आतंक के बल पर डराकर रखना चाहते हैं, वरना जिस हिंदुत्व की विचारधारा पर वे कूदते-उछलते हैं, वह उनकी सबसे बड़ी फासीवादी विचारधारा है.

बाईस प्रतिज्ञाओं पर आने से पहले मैं यह स्पष्ट करना जरूरी समझता हूँ कि कोई भी धर्म अपने बुनियादी सिद्धांतों पर जिन्दा रहता है. हिंदू धर्म की बुनियाद में वर्णव्यवस्था है, जैसा कि गाँधी जी भी कहते थे कि वर्णव्यवस्था के बिना हिंदू धर्म खत्म हो जायेगा. अगर कोई हिंदू आस्तिक नहीं है, चलेगा, पूजा-पाठ नहीं करता है, चलेगा, मंदिर नहीं जाता है, चलेगा, पर अगर जाति में विश्वास नहीं करता है, तो नहीं चलेगा. जाति में विश्वास ही हिंदू होने की बुनियादी शर्त है. इसी तरह दूसरे धर्मों के भी कुछ बुनियादी सिद्धांत हैं, जिनमें विश्वास किए बिना कोई भी उन धर्मों का अनुयायी नहीं माना जा सकता. अगर किसी मुसलमान का यकीन ‘कलमा तैय्यबा’ में नहीं है, तो वह मुसलमान नहीं माना जा सकता. यह ईसाईयों का बुनियादी विश्वास है कि यीशु ईश्वर के पुत्र हैं. इसमें अनास्था व्यक्त करके कोई भी ईसाई नहीं हो सकता. इसी तरह नवबौद्धों के भी कुछ बुनियादी सिद्धांत डा. आंबेडकर द्वारा निर्धारित किए गए थे. ये सिद्धांत ही बाईस प्रतिज्ञाओं के नाम से जाने जाते हैं. ये प्रतिज्ञाएँ नवबौद्धों को हिंदू संस्कृति और मान्यताओं से पूरी तरह मुक्त होने के लिए एक शपथ के रूप में कराई जाती हैं. इसमें क्या गलत है? क्या भाजपाई हिंदू यह चाहते हैं कि धर्मान्तरण के बाद भी नवबौद्ध हिंदू धर्म की मान्यताओं के ‘ब्राह्मण-जाल’ में फंसे रहें?

बाईस प्रतिज्ञाओं में शुरू की दो प्रतिज्ञाएं ये है—(1) ‘मैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश को कभी ईश्वर नहीं मानूँगा, और न उनकी पूजा करूँगा, और (2) मैं राम और कृष्ण को ईश्वर नहीं मानूँगा और न कभी उनकी पूजा करूँगा.’ इसमें क्या गलत है? कोई भी व्यक्ति, हिंदू धर्म छोड़ने के बाद, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, राम और कृष्ण को अपना ईश्वर क्यों मानेगा, जब उसके आराध्य भगवान बुद्ध हो गए हैं? अगर बौद्ध होने के बाद भी कोई व्यक्ति ब्रह्मा, विष्णु, महेश, राम और कृष्ण को अपना ईश्वर मानेगा और उनकी पूजा करता रहेगा, तब तो उसका धर्मान्तरण ही नहीं हुआ, और अगर हुआ तो वह अपूर्ण है. भारत में सर्वाधिक संख्या में जो धर्मान्तरण हुए, उनमें ब्राह्मणों और ठाकुरों ने ईसाइयत और इस्लाम में अपूर्ण धर्मान्तरण ही किए, जिसके कारण हिंदू धर्म का जातिवाद और अस्पृश्यता का रोग ईसाई और मुस्लिम समाजों में भी पहुँच गया, जबकि यह रोग मूलत: उनके धर्मों में नहीं है. अगर उन्होंने पूर्णरूपेण धर्मान्तरण किया होता, तो ईसाईयों और मुसलमानों में जातिवाद नहीं होता. डा. आंबेडकर ने पूर्णरूपेण धर्मान्तरण के उद्देश्य से ही बाईस प्रतिज्ञाओं के साथ दलितों को बौद्ध धर्म ग्रहण करवाया था, ताकि उनका पूरी तरह सांस्कृतिक रूपांतरण हो जाए. अगर वे बौद्ध होकर भी हिंदू धर्म के देवताओं को ईश्वर मानकर उनकी पूजा करते रहेंगे, तो ऐसा अपूर्ण धर्मान्तरण उनकी मुक्ति में कोई काम नहीं आएगा.

अब वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इन दोनों प्रतिज्ञाओं पर बात करते हैं. क्या ब्रह्मा, विष्णु, महेश, राम और कृष्ण वास्तव में ईश्वर हैं? क्या वे वास्तव में ईश्वर हो सकते हैं? क्या ईश्वर एक है या अनेक हैं? हिंदुओं का उपनिषद दर्शन भी एक ही ईश्वर को मानता है, कई को नहीं. दयानंद सरस्वती भी एक ही ईश्वर को मानते थे, उनके ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ को पढ़िए, उसमें साफ-साफ लिखा है कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश, राम और कृष्ण में कोई भी ईश्वर नहीं है, और न ईश्वर अवतार लेता है. दयानंद इसे ब्राह्मणों की पोपलीला कहते हैं. क्या दयानंद भी गलत हैं? जिस एक ईश्वर को दुनिया के सभी एकेश्वरवादी धर्म परमेश्वर, परमपिता, परमात्मा, निराकार, निर्विकार, अजन्मा, अजरामर मानते हैं, क्या ब्रह्मा, विष्णु, महेश, राम और कृष्ण इस श्रेणी में आते हैं? इनमें सभी ने जन्म लिया था, सभी की पत्नियाँ थीं, सभी के बच्चे थे. क्या ये परमात्मा, निराकार, निर्विकार, अजन्मा, अजरामर कहे जा सकते हैं? भापाइयों से पूछना चाहता हूँ कि आज वाल्मीकि जयंती पर सरकार की ओर से सभी वाल्मीकि बस्तियों और वाल्मीकि मंदिरों में रामायण का पाठ कराया जा रहा है, क्यों? राम से दलितों का क्या संबंध है? जिस राम का अवतार गऊ और ब्राह्मणों की रक्षा के लिए हुआ था, उसे दलितों पर क्यों थोपा जा रहा है? क्या यह कदम दलितों की भावनाओं को आहत नहीं करता है? क्या भावनाएँ सिर्फ हिंदुओं की होती हैं, दलितों की नहीं होतीं? माना कि वाल्मीकि समुदाय में अशिक्षितों की संख्या सर्वाधिक है, वे अभी नासमझ हैं, उनमें चेतना नहीं है, पर जो शिक्षित हैं, समझदार हैं और जिनमें चेतना है, क्या उनकी भावनाएँ आहत नहीं हो रही हैं?  डा. आंबेडकर ने राम-कृष्ण और देवी-देवताओं के नाम पर किए जाने वाले शोषण से दलितों को मुक्त करने के लिए ही उन्हें बाईस प्रतिज्ञाओं के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण करवाया था. ये प्रतिज्ञाएँ उन्हें सिर्फ शोषण की धार्मिक संस्कृति से ही मुक्त नहीं करती हैं, बल्कि उन्हें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी संपन्न बनाती हैं. क्योंकि उसमें उन्नीसवीं प्रतिज्ञा यह भी है कि ‘मैं मनुष्य मात्र में उत्कर्ष के लिए हानिकारक और मनुष्य मात्र को असमान और नीच मानने वाले अपने पुराने हिंदू धर्म का पूरी तरह त्याग करता हूँ और बुद्ध-धर्म को स्वीकार करता हूँ.

 

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