मंगलवार, 19 अप्रैल 2022

दलित लिबरेशन टुडे पत्रिका और मैं

 

दलित लिबरेशन टुडे पत्रिका और मैं

एस आर दारापुरी आई पी एस (से. नि.)

 दलित लिबरेशन टुडे पत्रिका का प्रारंभ 1995 में हुआ था। इसकी भी एक कहानी है। उस समय मैं डी. आई. जी. तकनीकी सेवाएं के पद पर लखनऊ में तैनात था और पुलिस कंप्यूटर विभाग भी हमारे अधीन था। वहाँ पर मैंने कंप्यूटर की  उपयोगिता को समझा और उसे सीखा। मुझे पता चला कि कंप्यूटर की  सहायता से पहले की अपेक्षा पत्रिका को निकालना बहुत आसान हो गया है। मैंने कंप्यूटर खरीदने के लिए रु 45,000 के सरकारी ऋण के लिए फार्म भरा और उसे लेकर सेकंड जनरेशन कंप्यूटर ले लिया।

किसी भी समाज के लिए पत्र पत्रिकाओं के महत्व के बारे में मैं जानता था और बाबासाहेब की  पत्रकारिता से मुझे बहुत प्रेरणा मिली। मैंने कुछ साथियों से एक मासिक पत्रिका निकालने का निर्णय लिया। इसमें विख्यात अम्बेडकरवादी भगवान दास जी की बहुत बड़ी भूमिका थी। हम लोगों ने भारत सरकार से दलित लिबरेशन टुडे नाम से द्विभाषी (हिन्दी व अंग्रेजी) मासिक पत्रिका का नाम लेने हेतु निवेदन किया और वह हमें एक माह में प्राप्त हो गया। नाम आने पर हम लोगों ने इसे छापना शुरू कर दिया। इसका पहला अंक फरवरी, 1995 में छापा गया। यद्यपि मासिक पत्रिका का नाम दलित लिबरेशन टुडे था परंतु यह  मुख्यतया दलित टुडे के नाम से प्रख्यात हुई।

इस पत्रिका का सम्पादन मेरे पुत्र वेद कुमार के नाम से किया जाता था क्योंकि मैं सरकारी सेवा में होने के कारण इसका संपादक नहीं बन सकता था। इसकी उप संपादक डा. शूरा दारापुरी थी।  इसके मुख्य सलाहकार प्रख्यात अम्बेडकरवादी भगवान दास और क्रांतिकारी प्रभु लाल जी थे। यद्यपि पत्रिका वाले लेखों का चयन और अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद मैं ही करता था परंतु सरकारी सेवा में होने के कारण मेरा नाम कहीं भी नहीं छापता था। पत्रिका का लेआयूट बनाने, उसे छपवाने और उसका वितरण करने का सारा काम वेद कुमार ही करता था।

पत्रिका में मुख्यतया दलित, पिछड़ा वर्ग, महिलायें एवं अल्पसंख्यक वर्गों के मुद्दे, अम्बेडकरी विचारधारा, दलित आंदोलन, बौद्ध धम्म आंदोलन तथा दलित राजनीति मुख्य विषय रहते थे। लेखों का मुख्य ध्येय समाज को सही जानकारी तथा सही दिशा देना था। जिन लेखों को अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद करके छापा जाता था उनकी दिशा भी वही थी। एक पृष्ठ “जुल्म जारी है” के नाम से दलित अत्याचार की खबरों के वारे में रहता था।

हमें यह देख कर आश्चर्य हुआ कि  पत्रिका की सदस्यता आश्चर्यजनक ढंग से बढ़ने लगी। भगवान दास जी के सौजन्य से इसकी सदस्यता अमरीका, इंग्लैंड, कैनेडा, आस्ट्रेलिया तक फैल गई थी। देश के अंदर भी इसकी सदस्यता लगभग सभी प्रांतों तक हो गई थी। इसके माध्यम से बहुत सारे दलित बुद्धिजीवियों, लेखकों और शोधकर्ताओं के लेख छपते रहते थे। एक तरीके से यह समाज के लगभग सभी वर्गों के मुद्दों कि प्रतिनिधि पत्रिका बन गई थी। हम लोगों ने इसे सभी वर्गों तक पहुँचाने के लिए इसकी कीमत रु 10 प्रतिकापी तथा वार्षिक चन्दा केवल रु 100 तथा आजीवन सदस्यता केवल रु 1000 ही रखा था क्योंकि हमारा ध्येय इसके माध्यम से कोई लाभ कमाना नहीं था।

इस पत्रिका में दलित आंदोलन तथा दलित राजनीति की दिशा को सही रखने तथा इसके भटकावों तथा अंतर्विरोधों की  तीखी आलोचना की जाती थी। इस कारण हमें कई वार सत्ताधारी पार्टी बसपा की नाराजगी का सामना भी करना पड़ा। नतीजा यह हुआ  कि हमें न तो कोई सरकारी विज्ञापन मिलता था और सरकार के डर से दलित अधिकारी भी किसी प्रकार की आर्थिक सहायता देने से डरते थे। परंतु हम लोगों ने अपने सिद्धांतों से कोई समझौता नहीं किया और हम लोग संत कबीर की “न काहू से दोस्ती न काहू से वैर” की नीति का अनुसरण करते रहे। हमें इस बात की  सुखद अनुभूति है कि हम लोगों ने अपनी पत्रिका के माध्यम से दलित राजनीति की जिन कमियों कमजोरियों को उजागर किया था और उनकी निर्मम आलोचना की थी बाद में वे सब सही सिद्ध हुईं और वही उसके पतन का कारण भी सिद्ध हुईं। उस दौर में हम लोगों ने बसपा की जातिवादी, अवसरवादी, सिद्धांतहीन एवं भ्रष्टाचारयुक्त राजनीति का विरोध किया था।

हमारी सत्ताविरोधी नीति के कारण हमें अत्यंत आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा। दलित लिबरेशन टुडे पत्रिका पर हमारा खर्च लगभग रु 7 प्रति कापी आता था परंतु आर्थिक तंगी के कारण उसको चलाना बहुत कठिन हो रहा था। कुछ महीनों तक हम ने उसे जेब से खर्च करके चलाया परंतु अत्यंत घाटे के कारण नवंबर 1998 में उसे बंद करना पड़ा। हमें इस बात की खुशी है कि हमारी पत्रिका से प्रेरणा ले कर कई दूसरे साथियों ने पत्रिकाएं निकालनी शुरू कीं जिनमें से कुछ अभी भी चल रही हैं।  

 दलित लिबरेशन टुडे पत्रिका निकालने से हमें अनुभव हुआ है कि यदि अच्छी स्तरीय पत्रिका निकाली जाए तो उसकी मांग पैदा होती है। परंतु पत्रिका चलाने के लिए आर्थिक संसाधनों का भी बहुत महत्व होता है। अर्थ के बिना किसी काम को बहुत दिन तक नहीं चलाया जा सकता। मेरा दलित साथियों से अनुरोध है कि उन्हें अच्छी पत्र-पत्रिकाओं को अवश्य सपोर्ट करना चाहिए क्योंकि आज हिन्दुत्व के हमले का सामना सही विचार ग्रहण करके ही किया जा सकता है। अच्छी पत्र-पत्रिकाएं ही बाबासाहेब की विचारधारा को सही रूप में प्रस्तुत कर सकती हैं। यह अच्छी बात है कि अब कागज पर छपने वाली अधिकतर पत्रिकाओं का स्थान वेब पत्रिकाओं ने ले लिया है जो पत्रिकाओं को छपवाने के स्थान पर अधिक सुगम है और काम खर्चीला है परंतु उन्हें भी आर्थिक सहायता की  जरूरत होती है जो अवश्य दी जानी चाहिए।

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