गुरुवार, 28 अक्टूबर 2021

दलित राजनीति को चाहिए एक नया रेडिकल एजंडा एवं नई दिशा

 

दलित राजनीति को चाहिए एक नया रेडिकल एजंडा एवं नई दिशा

-एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट

कुछ समय पहले में एक साक्षात्कार में चंद्रशेखर आजाद उर्फ रावण ने कहा था कि वर्तमान दलित राजनीति का स्वर्णिम काल है। वैसे आज अगर दलित राजनीति की दशा और दिशा देखी जाए तो यह कहीं से भी उसका स्वर्णिम काल दिखाई नहीं देता है बल्कि यह उसका पतनकाल है। एक तरफ जहां दलित नेता दलित विरोधी पार्टियों में शरण लिए हैं वहीं शेष दलित पार्टियां इतनी कमजोर हो गई हैं कि वे राजनीति में कोई प्रभावी दखल नहीं दे पा रही हैं। इधर जिन दलित पार्टियों ने जाति की राजनीति को अपनाया था वे भाजपा के हाथों बुरी तरह से परास्त हो चुकी हैं क्योंकि उनकी जाति की राजनीति ने भाजपा फासीवादी हिन्दुत्व की राजनीति को ही मजबूत करने का काम किया है। परिणामस्वरूप इससे भाजपा की जिस अधिनायकवादी कार्पोरेटपरस्त राजनीति का उदय हुआ है उसका सबसे बुरा असर दलित, आदिवासी, मजदूर, किसान और अति पिछड़े वर्गों पर ही पड़ा है। निजीकरण के कारण दलितों का सरकारी नौकरियों में आरक्षण लगभग खत्म हो गया है। श्रम कानूनों के शिथिलीकरण से मजदूरों को मिलने वाले सारे संरक्षण लगभग समाप्त हो गए हैं।

वर्तमान सरकार द्वारा दलितों/आदिवासियों का दमन किया जा रहा है। इन वर्गों के मानवाधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले तथा उनकी पैरवी करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी, लेखकवर्ग को  माओवादी/राष्ट्रविरोधी  करार देकर जेल में डाल दिया गया हैं। सामंती एवं पूंजी की ताकतें आम लोगों पर बुरी तरह से हमलावर हो रही हैं। सरकार पूरी तरह से इन जन विरोधी ताकतों के साथ खड़ी है। सरकार हरेक सरकार विरोधी आवाज को दबाने पर तुली हुई है। लोगों के लोकतान्त्रिक अधिकारों का बुरी तरह से दमन हो रहा है। काले कानूनों का खुला दुरुपयोग हो रहा है और वर्तमान कानूनों को अधिक क्रूर बनाया जा रहा है। लोगों पर फर्जी मुकदमे लगा कर उन्हें जेलों में डाला जा रहा है।

अब अगर दलित राजनीति की वर्तमान दश और दिशा पर दृष्टि डाली जाए तो यह अपने पतन काल में दिखाई देती है। दलितों के अधिकतर नेता या तो सत्ताधारी पार्टी में चले गए हैं या उससे गठबंधन में हैं। जो बाकी बचे हैं वे या तो इतने कमजोर हो गए हैं कि किसी दलित मुद्दे पर बोलने से डरते हैं या दलित मुद्दे उनकी राजनीति का हिस्सा ही नहीं हैं। उत्तर भारत में जो दलित राजनीति बहुजन के नाम पर शुरू हुई थी वह उसके संस्थापक कांशी राम के जीवन काल में ही सर्वजन में बदल गई थी जो विशुद्ध सत्ता की राजनीति थी और उसका दलित मुद्दों से कुछ भी लेना देना नहीं था। इसके पूर्व की डा. अंबेडकर द्वारा स्थापित रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया (आरपीआई) अवसरवादी एवं व्यक्तिवादी नेताओं के सत्ता लोभ का शिकार हो कर इतने टुकड़ों में बंट चुकी है कि उनका गिना जाना मुश्किल है। यह उल्लेखनीय है कि आजादी के बाद यही आरपीआई जब तक दलित मुद्दों को लेकर जन आन्दोलन आधारित राजनीति करती रही तब तक वह देश में कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी थी। परंतु जैसे ही कांग्रेस ने इसके सबसे बड़े नेता दादासाहेब गायकवाड को बड़े पद का लालच देकर फोड़ लिया तब से यह पार्टी कुछ लोगों की जेबी पार्टी बन कर कई गुटों में बंट गई और बेअसर हो गई। रामदास आठवले भी इसी के एक गुट के नेता हैं जो भाजपा के साथ गठजोड़ करके सत्ता सुख भोग रहे हैं। राम विलास पासवान हमेशा ही सत्ताधारी पार्टी के साथ गठजोड़ करके मंत्री पद प्राप्त करते रहे। कांशी राम की बसपा पार्टी ने तीन वार घोर दलित विरोधी पार्टी भाजपा के साथ गठबंधन करके मायावती के लिए मुख्य मंत्री पद प्राप्त किया। चंद्रशेखर भी कांशी राम की इसी राजनीति को आगे बढ़ाने की बात कर रहा है।

शायद चंद्रशेखर इस समय जो राजनीति कर रहा है वह उसको ही दलित राजनीति का स्वर्णिम काल कह रहा है। उसके अनुसार वह कांशी राम के मिशन को ही आगे बढ़ाने की राजनीति कर रहा है। यह किसी से छुपा नहीं है कि कांशी राम की राजनीति विशुद्ध सत्ता की  जातिवादी/सांप्रदायिक अवसरवादी राजनीति थी जिसका न तो कोई दलित एजंडा था और न ही कोई सिद्धांत। वह तो अवसरवादी एवं सिद्धांतहीन होने पर गर्व महसूस करते थे। उन्होंने शुरूआत तो व्यवस्था परिवर्तन के नारे के साथ की  थी परंतु बाद में वे उसी व्यवस्था का एक हिस्सा बन कर रह गए। मायावती के चार वार मुख्यमंत्री बनने से भी उत्तर प्रदेश के दलितों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ जबकि उनके नाम पर बहुत सारे दलित और गैर दलित नेताओं ने सत्ता का इस्तेमाल अपने विकास के लिए बखूबी किया। चंद्रशेखर ने भी इस पिछले वर्ष बिहार के चुनाव में पप्पू यादव के साथ जो गठजोड़ किया था क्या वह दलित हित में था? पप्पू यादव कितना दलित हितैषी है यह कौन नहीं जानता की वह उस समय किसको लाभ पहुंचाने का काम कर रहा था।

अतः यह विचारणीय है कि चंद्रशेखर बिहार में बेमेल गठजोड़ की जो राजनीति कर रहा था वह कितनी दलित हित में थी? वर्तमान में दलित राजनीति को बदलाव का रेडिकाल  एजंडा  लेकर चलने की जरूरत है न कि कांशी राम मार्का अवसरवादी एवं सिद्धांतहीन राजनीति की। क्या केवल कोई सेना खड़ी करके लड़ाकू तेवर दिखाने से दलित राजनीति को आगे बढ़ाया जा सकता है, क्योंकि इस प्रकार की  सेनाओं के बहुत से प्रयोग पहले हो चुके हैं। वास्तव में वर्तमान में दलितों सहित समाज के अन्य कमजोर वर्गों एवं अल्पसंख्यकों की नागरिकता एवं मौलिक अधिकारों को बचाने के लिए जन मुद्दा आधारित जनवादी राजनीति की जरूरत है ना कि वर्तमान अधिनायकवादी, शोषणकारी राजसत्ता में हिस्सेदारी की। अतः अधोपतन, बिखराव, अवसरवाद एवं सिद्धांतहीनता की शिकार वर्तमान दलित राजनीति की त्रासदी को इसका स्वर्णिम युग कहना एक मसखरापन ही कहा जा सकता है। अब तक यह भी स्पष्ट हो चुका है कि केवल जाति की राजनीति से दलितों का कोई भला होने वाला नहीं है। इस लिए दलित राजनीति को एक रेडिकल दलित एजंडा (भूमि वितरण, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, अत्याचार से मुक्ति तथा लोकतंत्र का बचाव) अपनाने और उसके लिए सौदेबाजी और वर्तमान लूट की राजनीति में हिस्सेदारी के बजाए संघर्ष की स्वतंत्र राजनीति अपनानी होगी। आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट काफी लंबे अरसे से दलित/आदिवासी, मजदूर एवं अल्पसंख्यकों की राजनीति को एक नई दिशा देने के लिए प्रयासरत है।

 

बुधवार, 20 अक्टूबर 2021

भारत में दलित वर्ग का भविष्य

                                      भारत में दलित वर्ग का भविष्य
                                               - भगवान दास

                                      (23 अप्रैल, 1927 - 18 नवंबर,2010)
 
(नोट: यद्यपि भगवान दास जी ने यह लेख 2001 में लिखा था परंतु इस में उन्होंने दलित वर्ग की जिन कमियों और कमजोरियों को चिन्हित किया था तथा दलित वर्ग के अंधकारमय भविष्य की भविष्यवाणी की थी, वह आज पूरी तरह से सही साबित हो रही है। अतः दलित वर्ग को इस लेख से सीखना चाहिए तथा अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए बौद्ध धर्म अपना कर अपने अंदरूनी जातिभेद को समाप्त कर एक मजबूत संगठन बना कर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना चाहिए। दलितों को याद रखना चाहिए कि बाबासाहेब के जातिविहीन एवं वर्गविहीन समाज की स्थापना की जिम्मेदारी उन पर ही है.- एस आर दारापुरी) 
 
किसी भी व्यक्ति, समुदाय या समूह के बारे में भविष्यवाणी करना संभव नहीं। भविष्य के बारे में जानने या बताने का दावा ज्योतिषी ही करते हैं जो अधिकतर तुक्केबाजी पर आधारित होता है और गलत सिद्ध होता है। परंतु फिर भी हमारे देश में अधिकतर लोग विशेष कर हिन्दू ज्योतिष पर अधिक विश्वास करते हैं। विवाह ज्योतिषी से शुभ मुहूरत पूछ कर सम्पन्न होते हैं। इमारतों की बुनियादें ज्योतिषियों से पूछ कर रखी जाती है। इलेक्शन के कागज ज्योतिषियों से पूछ कर दाखिल किए जाते हैं। परंतु फिर भी औरतें विधवा होती हैं, शादियाँ फेल होती हैं। इमारतें ढह जाती हैं और इलेकशनों में लोग हारते भी हैं और जीतते भी हैं।
परंतु वर्तमान के रहजनों (नेताओं) को देखते हुए और इतिहास के अनुभवों को सामने रखते हुए कुछ अंदाजे लगाए जा सकते हैं। वे भी कभी कभी गलत साबित हो जाते हैं। मिसाल के तौर पर 19वी शताब्दी के आखिर में जर्मनी में जन्में प्रसिद्ध विद्वान और चिंतक कार्ल मार्क्स के अनुसार कम्युनिस्ट क्रांति से पहले दौर में प्रोलतारी डिक्टेटरशिप (सर्वहारा का अधिनायिकवाद) स्थापित होगी। फिर वह सोशलिज़्म (समाजवाद) स्थापित करेगी और अंत में कम्यूनिज़्म आएगा जिस में न कोई शोषक होगा न शोषित होगा। परंतु ऐसा कुछ हुआ नहीं। इसके विपरीत रूस में किया गया पहला तजुरबा फेल हो गया।
फिर भी तथ्यों को ठीक ढंग से इकट्ठा करने और उनका विश्लेषण करने से कुछ अंदाजे काफी हद तक ठीक साबित होते हैं। उदाहरण के तौर पर 1940 में पाकिस्तान की स्थापना के बारे में डा. बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर द्वारा लिखी पुस्तक Thoughts on Pakistan (पाकिस्तान पर विचार) है जो बहुत हद तक सही साबित हुए।
दलित और अल्प संख्यक ग्रुप अनुसूचित जातियों तथा अल्पसंख्यक ग्रुपों- मुसलमान, ईसाई, सिक्ख, फारसी, यहूदी आदि- में एक अंतर है। अल्पसंख्यक लोगों को जोड़ने वाला धर्म या नस्ल की पहचान है परंतु अनुसूचित जातियों को जोड़ने वाली केवल संविधान में दी गई एक सूची है, अलग पहचान नहीं।
1935 से पहले अछूत और पिछड़ी जातियों की एक लंबी लिस्ट थी परंतु उस जमाने में शूद्र और अछूत मानी जाने वाली जातियों में सवर्ण हिन्दू कहलाने का जुनून सवार था। हर जाति ब्राह्मण/ ठाकुर होने का दावा करती थी। कांग्रेस और अन्य हिन्दू राजनीतिक तथा सामाजिक पार्टियों ने अछूतों और पिछड़ी जातियों की इस कमजोरी का लाभ उठाने के लिए खूब जोरदार प्रोपेगंडा किया।
उनका हित यह था कि दलितों की संख्या बड़ी न दिखे और हिंदुओं की जनसंख्या कम न हो जाए। ब्रिटिश सरकार ने अस्पृश्यता से पैदा होने वाली कठिनाइयों को आधार या मापदंड से जोड़ा और नई सूची बनाई गई जिसे Scheduled Castes Order (शैडयूलड कास्ट्स आर्डर) कहा गया। इसमें 429 जातियाँ शामिल की गईं। इसमें भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जाटव जाति ने कई जगह सभाएं कीं और अनुसूचित जातियों में शामिल किए जाने के खिलाफ विरोध किया क्योंकि आर्य समाज के प्रोपेगंडा के शिकार हुए कुछ नेताओं का दावा था कि वे कृष्ण के वंशज हैं और राजपूत हैं। उन्हें चमारों की सूची में शामिल नहीं किया जाए। कुछ जिलों में जाटवों का नाम अनुसूचित जाति से काट दिया गया। धानुकों ने भी कुछ इसी प्रकार का विरोध किया। उनका नाम भी कुछ प्रदेशों में सूची से काट दिया गया। यही कुछ धोबी जाति के लोगों के साथ भी हुआ। हिमाचल में कोली “छोटे राजपूत” बनने की कोशिश कर रहे थे क्योंकि उनके ऊपर आर्य समाज का काफी प्रभाव था।
1949 में नया संविधान बनाया गया जो 26.11.1949 से लागू हुआ। नए संविधान में भी एक अलग सूची जोड़ी गई जो पुराने संविधान के मुकाबले बहुत लम्बी थी। इसमें 900 से भी अधिक जातियाँ शामिल हैं। नए संविधान में अनुच्छेद 341 के तहत प्रेज़ीडेंट को अनुसूचित जातियों को निर्दिष्ट करने का अधिकार दिया गया है और संसद को नाम जोड़ने या काटने का अधिकार दिया गया है। इस बात का फैसला संसद करती है कि कौन अनुसूचित माना जाए और कौन नहीं। 1930-35 में बहुत सी जातियाँ डिप्रेस्ड क्लास की सूची से बाहर निकलना चाहती थीं आज बहुत सी शामिल की जाने की मांग कर रही हैं।
इस प्रकार अनुसूचित जातियों की पहचान केवल संसद या सुप्रीम कोर्ट पर निर्भर करती है। उनको जोड़ने वाली और कोई चीज नहीं है। सूची से नाम काटे जाने पर वे कानून की दृष्टि में अछूत नहीं रहेंगी।
डा. बाबासाहेब अंबेडकर ने समूचे भारत के दलितों को जोड़ने के लिए कई तरह के प्रयास किए। पहला प्रयास महाराष्ट्र के चौदार तालाब से पानी लेने के लिए जन आंदोलन के रूप में 1927 में किया। संघर्ष में महारों के अतिरिक्त अन्य कई अछूत जातियों ने उस में सहयोग किया परंतु इस आंदोलन के बाद मानव और नागरिक अधिकारों के लिए कोई दूसरा आंदोलन नहीं चलाया गया। अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए शिक्षा का प्रचार तथा राजनीतिक अधिकारों के लिए बाबासाहेब ने संघर्ष जारी रखा और सफलता प्राप्त की।
दूसरा प्रयास राजनीतिक पार्टी बनाने के लिए किया गया। पहली राजनीतिक पार्टी Independent Labour Party (स्वतंत्र मजदूर पार्टी) थी जिसकी स्थापना 1936 में की गई परंतु यह केवल अछूतों की पार्टी नहीं थी। इसका उद्देश्य मजदूर वर्ग का अधिक उत्थान करना था। इसमें महार, चमार, मांग, मेहतर आदि जातियों के इलावा सवर्ण हिन्दू भी सदस्य विधायक बने परंतु इसका कार्यक्षेत्र बंबई प्रांत ही था।
दूसरा प्रयास 1942 में हुआ जब अछूतों के इतिहास में पहली बार अछूतों की एक स्वतंत्र पार्टी की स्थापना की गई। इस पार्टी का नाम Scheduled Castes Federation (शैडयूलड कास्ट्स फेडरेशन) रखा गया। इस पार्टी में कई अछूत जातियों के लोग शामिल हुए और ऊपरी तौर पर एक संगठन बना। परंतु यह संगठन राजनीतिक लाभ के लिए था, इसकी बुनियाद कमजोर थी। सबसे बड़ी कमजोरी अछूतों की जाति व्यवस्था थी। चमार, खटीक, भंगी, मेहतर, धोबी, मला, मादिगा आदि जातियाँ केवल भिन्न भिन्न पेशों के आधार पर बनी हैं परंतु हिन्दू धर्म की शिक्षा और दुष्प्रभाव के कारण वे एक दूसरे को ऊंचा नीचा समझती हैं और छुआछूत भी करती हैं। ऐसी परिस्थिति में एक संगठन बनना संभव नहीं। इसी कारण जब अत्याचार होते हैं वे एकजुट हो कर न तो मुकाबला कर पाते हैं न ही सहायता।
जातियता के भाव इस कादर मजबूत हैं कि एक जाति के लोग एक धर्म में चले जाएं तो दूसरे धर्म के लोग उस धर्म से दूर रहेंगे। अगर एक जाति के लोग एक पार्टी में चले जाएं तो दूसरी जाति के लोग उससे दूर रहेंगे। पार्टी के अंदर भी पदों और टिकट बाँटते समय जाति का बहुत ख्याल रखा जाता है। इस कारण हर पार्टी एक जाति की पार्टी बन कर रह जाती है जैसाकि महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी या उत्तर भारत में बहुजन समाज पार्टी। जातियता के कारण बहुत सी पार्टियां वजूद में आ जाती हैं पर अच्छा संगठन बन नहीं पाता।
बाबासाहेब ने तीसरा प्रयास धर्म परिवर्तन के जरिए करने की कोशिश की परंतु इस आंदोलन को चलाने के 53 दिन बाद ही उनका देहांत हो गया। और धर्म आंदोलन जो जाति व्यवस्था को तोड़ कर एक नई पहचान वाली इकाई बना सकता था, वह नहीं बन पाया। धर्म परिवर्तन उन्हीं कमजोरियों का शिकार हो गया जिसका शिकार राजनीतिक आंदोलन हुआ था।
इस आंदोलन की लीडरशिप में अधिकतर राजनीतिक नेता थे, वे धर्म परिवर्तन आंदोलन को सही दिशा नहीं दे सके। उन्होंने राजनीति और धर्म को एक ही तरीके से चलाने की कोशिश की। उससे धर्म के आंदोलन को अधिक नुकसान पहुँचा।
बाबासाहेब ने उन्नति और प्रगति के लिए कई तरीके बताए थे और संविधान में कई प्रावधान किए थे। उनका लाभ अछूत जातियों को पहुँचा है बावजूद इस बात के कि उन्होंने सभी अछूतों की जागृति और उत्थान के लिए काम किया। उनके अनुयायी बहुत कम थे। अधिकतर लोगों ने उन प्रावधानों और सुविधाओं का लाभ तो उठाया परंतु उनकी शिक्षा को स्वीकार नहीं किया। वे हिन्दू धर्म और जाति व्यवस्था की गुलामी से आजाद नहीं होना चाहते थे। सदियों से गुलामी का शिकार रहने के कारण वे गुलामी से प्यार करने लगे थे।
बाबरी मस्जिद तोड़ने के बाद पिछड़ी जातियों के भारतीय जनता पार्टी के मंत्रियों, सांसदों और विधायकों के भाषण इस का अच्छा सुबूत हैं।
आज समूचे भारत में एक ओर तो दलितों पर अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं, आरक्षण का विरोध बढ़ता जा रहा है। निजीकरण के जरिए उन्नति के दरवाजे बंद होते जा रहे हैं, दूसरी ओर दलित किसी एक क्षेत्र में भी संगठित नहीं। वे नवयुवक जो राजनीति को अपना कर कार्यक्षेत्र बनाना चाहते हैं वे दरअसल राजनीति में नहीं बल्कि संसद और विधान सभा में दाखिल होना ही राजनीति समझते हैं। संघर्ष, त्याग, कुर्बानी तथा जन आंदोलन का कठिन रास्ता अपनाने की बजाए वे उन पार्टियों में शामिल हो जाते हैं जिनके द्वारा उन्हें जीतने की अधिक आशा है या जो उन्हें अधिक पैसे दे सकते हैं। संसद और विधान सभा में वे अपने स्वामियों के अधिक वफादार रहते हैं। दलितों की नज़रों में राम न तो उनके आदर्श पुरुष हीरो हैं न भगवान क्योंकि वह ब्राह्मणवाद और वर्णव्यवस्था का समर्थक था और जब होश आया तो सरजू नदी में जलसमाधि लेकर आत्महत्या करके मर गया परंतु शूद्र जातियों के लोग अज्ञानता और राजनीतिक स्वार्थवाश अपने स्वामियों से आवाज मिला कर उसके गुणगान कर रहे हैं। इससे बढ़ कर पिछड़ापन और गुलामी का और क्या सुबूत हो सकता है।
गरीब/मजदूर और कमजोर लोगों के हितों, जमीन का बंटवारा, बेकारी के खिलाफ लड़ाई, महंगाई, भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन यह पार्टियां नहीं चलाती है न “राजनैतिक नौकरियां” ढूँढने वाले नौजवान। वह तो इस किस्म के “फजूल” कामों में कोई विश्वास नहीं रखते। सत्ता हमारे हाथ में ऐसे आ जाएगी फिर हम जो चाहेंगे कर लेंगे। किसी जमाने में कांग्रेस भी ऐसे ही नारे लगाया करती थी। बहुजन समाज पार्टी भी ऐसे ही नारे लगाती थी परंतु हाथ में सत्ता आ जाने पर दलित उत्थान के लिए कुछ भी नहीं किया।
अछूत जमीन के बंटवारे का आंदोलन नहीं चला पाए जबकि रिपब्लिकन पार्टी ने इसके महत्व को समझते हुए एक बड़ा आंदोलन 1964-65 में चलाया था और बड़ी सफलता भी प्राप्त की थी। खेत मजदूर, छोटा किसान, दस्तकार, अछूत और पिछड़े वर्ग का व्यक्ति इसे अपनी पार्टी समझने लगा था परंतु उसका शहरी लीडर शहरी समस्याओं में उलझ कर रह गया। वह पार्टी लीडरशिप की कमजोरियों तथा जाति व्यवस्था और गलत इलेक्शन कानूनों के कारण टुकड़ों में बंट गई। कांग्रेस तथा अन्य पार्टियों ने उसे तोड़ने में बड़ा काम किया क्योंकि वह उनके लिए बड़ा खतरा बनती जा रही थी।
जातियता के भाव के कारण अछूत संगठित नहीं हो सके। उन्हें जाति से इतना प्यार है कि वे विदेशों में जा कर भी इसका मोह नहीं छोड़ पाते। ऊंच-नीच, नफरत और घृणा के रहते संगठन संभव नहीं।
इलेक्शन द्वारा आज प्रचलित कानूनों और पद्धति के रहते वे कभी राजनीतिक शक्ति हासिल कर सकेंगे संभव नजर नहीं आता।
आरक्षण से कुछ लोगों को लाभ हुआ है परंतु आरक्षण से लाभ उठाने वालों में से बहुत कम लोगों ने समाज को उठाने का काम किया है परंतु आरक्षण हमेशा रहने वाली चीज नहीं है। यदि शिक्षित लोगों की संख्या बढ़ जाती है और शिक्षित नवयुवकों में बेरोजगारी बढ़ जाती है तो आरक्षण बेमानी हो जाएगा।
हिन्दू धर्म और वर्ण व्यवस्था को आदर्श मान कर चलने वाले लोग रोज बरोज शक्तिशाली बनते जा रहे हैं। वे रामराज्य (हिन्दू राष्ट्र) स्थापित करना चाहते हैं और काफी बड़ी संख्या में दलित और शूद्र जातियों के लोग रामराज्य स्थापित करने में उनकी मदद कर रहे हैं। राम राज्य का मतलब होगा वर्णव्यवस्था और सवर्णों का राज। यह संविधान जो समता का दावा करता है, अधिकारों की बात करता है राम राज में खत्म कर दिया जाएगा क्योंकि रामराज्य असमानता का राज्य था। अन्याय का राज्य था जिसमें शूद्र और स्त्री को इज्जत से जीने का अधिकार नहों था।
इन हालातों में अछूतों का भविष्य खतरे में है। उनका कोई मित्र नहीं और कोई सहयोगी नहीं। कुछ लोग छिटपुट तरीके से सत्ता में आने के लिए संगठन बना पा रहे हैं परंतु संगठित नहीं हो पाते। सबसे दयनीय हालत उनकी नजर आती है जो अम्बेडकरवादी होने का दावा करते हैं। अब लोग उन पर हंसने लगे हैं क्योंकि जहां वह मंच पर ब्राह्मणों की आलोचना करते हैं वहीं दैनिक जीवन में उन्हीं के बनाए हुए नियम, ऊंच- नीच, अंधविश्वास, रीति रिवाजों पर अमल करते हैं। वे बौद्ध धर्म को अपना कर भी महार, चमार, भंगी, खटीक बने रहने में कोई गलती नहीं मानते हैं। वे इतिहास से कुछ भी सीखना नहीं चाहते।
इन परिस्थितियों और कमजोरियों को देखते हुए दलितों का भविष्य अंधकारमय लगता है। “हिन्दुत्व” के नशीले और खतरनाक नारे दलितों को बहुत नुकसान पहुंचाएंगे। गांधी और कांग्रेस ने उन्हें संगठित होने से रोका था और अपनी पहचान बनाने में बाधाएं डाली थीं। उन्हें दूसरे अल्पसंख्यकों से दूर रखने की कोशिश की थी। उसका मुख्य कारण था कि वे हिन्दू धर्म को मजबूत बनाना चाहते थे। कांग्रेस में लीडरशिप तथाकथित ऊंची जातियों के लोगों के हाथों में थी।
अब हिन्दुत्व का नारा लगा कर सत्ता में आई पार्टी भी वही कर रही है जो कांग्रेस करती आई थी। अछूतों को सिक्खों से लड़ायो और फिर उनके मुंह पर कालिख पोत कर बदनाम करो। अछूतों को मुसलमानों से लड़ाओ ताकि वे इकट्ठा न हो सकें। अछूतों में हिन्दू रीति रिवाजों को और जातियता को बढ़ावा दो ताकि वे संगठित न हो सकें और उनके लिए खतरा पैदा न कर सकें। दोनों पार्टियों के तरीकों में फर्क हो सकता है परंतु उद्देश्यों में नहीं।
दलितों का हित इस बात में है कि वे बाबासाहेब अंबेडकर के दिखाए रास्ते पर चल कर जातियता, रूढ़िवाद, रीति रिवाज की गुलामी से आजाद हो कर अपनी अलग पहचान बनाएं। अपने जीवन से हिन्दू धर्म के असर और निशानों को जहर समझ कर निकाल दें। साफ शब्दों में वे अपने आप को हिन्दू धर्म की गुलामी से आजाद कर लें। अपने नाम, जीवन पद्धति, खान पान, लिबास सब कुछ अलग कर लें, अपनी अलग पहचान बनाएं। बौद्ध धर्म के उसूलों पर आधारित एक नए समाज, एक नई सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था का निर्माण करें। तभी वे आने वाले समय में इज्जत के साथ जी सकेंगे और अपनी तरह के शोषण के शिकार लोगों को मुक्त करा सकेंगे।
हिन्दू धर्म दलितों की गुलामी, पिछड़ापन, गरीबी, अनपढ़ता, अज्ञानता, मानसिक और शारीरिक कमजोरी और असंगठन का मुख्य कारण हैं। उन्नति, प्रगति एवं सम्मान पूर्वक जीवन के लिए पूर्ण तौर पर इस गुलामी से आजाद होना इतना ही जरूरी है जितना एक गुलाम देश के लिए स्वतंत्र होना जरूरी है।
(भगवान दास डा. अंबेडकर के सहयोगी थे। उन्होंने ने ही भारतीय उपमहादीप में छुआछूत के मुद्दे को अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाया था। 1983 में उन्होंने इस मुद्दे को यूएनओ में प्रस्तुत किया था)

 

शनिवार, 16 अक्टूबर 2021

बौद्ध धर्म को हिंदू धर्म में शामिल करने के नए प्रयास अम्बेडकर को 'कमजोर' कर रहे हैं


 

बौद्ध धर्म को हिंदू धर्म में शामिल करने के नए प्रयास अम्बेडकर को 'कमजोर' कर रहे हैं
अविरल आनंद*
 


1935 में येओला से, जब डॉ. अम्बेडकर ने घोषणा की कि वे एक हिंदू नहीं मरेंगे, 1956 में नागपुर तक, जब उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया, समय में काफी दूरी है। लेकिन, उनमें हिंदू धर्म से दूर जाने के बारे में 1935 में एक सार्वजनिक घोषणा करने की आवश्यकता थी।
यह हिंदू धर्म में बने रहने की निरर्थकता की उनकी भावनाओं की गहराई का एक वसीयतनामा था। हिंदू धर्म से बाहर आने का यह आवेग बनने में एक लंबा समय था, और येओला से पहले भी शुरू हो गया था, जैसा कि अम्बेडकर विद्वानों धनंजय कीर और एलेनोर जेलिअट ने दिखाया है।
हिंदू धर्म को छोड़कर किसी अन्य धार्मिक संप्रदाय में शरण लेने के विचार के इस कीटाणु को अम्बेडकर और उनके कई शुभचिंतकों और सहयोगियों द्वारा लंबे और कठिन विचार किया गया था। 1935 में येओला की घोषणा के तुरंत बाद, 1936 में मुंबई में एक महार सम्मेलन का आयोजन किया गया।
मराठी में 'मुक्ति कोन पाथे' शीर्षक से भाषण में - बाद में वसंत मून द्वारा अनुवादित 'मोक्ष का मार्ग क्या है?' - अम्बेडकर ने कहा कि "हिंदुओं और अछूतों के बीच संघर्ष हमेशा के लिए जारी रहेगा।" वहाँ से निकलने के रास्ते के बारे में उन्होंने महसूस किया कि, "एक ही रास्ता है - और वह है हिंदू धर्म और उस हिंदू समाज की बेड़ियों को फेंक देना जिसमें आप कराह रहे हैं।" इसने मोहनदास गांधी सहित कई हिंदुओं के बीच एक कच्ची तंत्रिका को छुआ।
1936 में जात-पात-तोड़क मंडल द्वारा एक भाषण के लिए अंबेडकर को लाहौर आमंत्रित किया गया था, लेकिन बाद में निमंत्रण को रद्द कर दिया गया था। इसके बाद उन्होंने अपने अप्रकाशित भाषण को एनीहिलेशन ऑफ कास्ट शीर्षक के तहत एक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने "एक हिंदू के रूप में नहीं मरने" के अपने फैसले को दोहराया और हिंदू धर्म के पूरी तरह से पुनर्गठन की भी वकालत की।
हिंदू धर्म से दूर जाने के अपने इरादे के बारे में विरोध और प्रश्नों के मद्देनजर, उन्होंने 'हिंदुओं से दूर' शीर्षक से एक छोटा लेख लिखा, जिसमें उन्होंने चार प्रमुख आपत्तियों पर अपनी राय दी। उसमें उन्होंने कहा:
"सामाजिक रूप से, अछूत पूरी तरह से और अत्यधिक लाभ प्राप्त करेंगे क्योंकि धर्मांतरण से अछूत एक ऐसे समुदाय के सदस्य होंगे, जिसके धर्म ने जीवन के सभी मूल्यों को सार्वभौमिक और समान किया है। ऐसा आशीर्वाद उनके लिए अकल्पनीय है, जबकि वे हिंदू धर्म में हैं।"
किस धर्म को अपनाना है, यह तब भी तय नहीं था। हिंदू धर्म से बाहर निकलने के बाद, कहने के लिए, भूमि के लिए जगह चुनने के साथ उनके संघर्ष का एक रिकॉर्ड है। उन्हें यह विश्वास विकसित करने में लगभग 20 साल लगेंगे कि बौद्ध धर्म में ही उन्हें और उन पर भरोसा करने वाले लोगों को एक नया घर मिलेगा।
जेलिअट के अनुसार, हालांकि, बौद्ध धर्म में परिवर्तन के सुझाव पहले दिए गए थे: "1930 में पूना के पास कोरेगांव स्मारक में आयोजित एक बैठक में, नागपुर के डी पटेल ने विचार दिया था कि यह उचित होगा कि दलित वर्गों को बौद्ध धर्म ग्रहण करना चाहिए। '"
अम्बेडकर के मन में कभी भी हिंदू धर्म को पूरी तरह और अपरिवर्तनीय रूप से छोड़ने के बारे में कोई संदेह नहीं था। वास्तव में, 14 अक्टूबर, 1956 को नागपुर में वरिष्ठ भिक्षु यू चंद्रमणि से बौद्ध दीक्षा लेने के ठीक बाद, उन्होंने बौद्ध धर्म में परिवर्तित होने की इच्छा रखने वाले सभी दर्शकों के लिए अब प्रसिद्ध
22-प्रतिज्ञाओं को प्रशासित किया।
इन प्रतिज्ञाओं की एक अच्छी संख्या स्पष्ट रूप से हिंदू देवताओं की पूजा करने से धर्मांतरण करने वाले व्यक्ति को मना करती है। जैसा कि अकादमिक माइकल स्टॉसबर्ग लिखते हैं, "अम्बेडकर स्पष्ट रूप से यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि समावेशीवाद की हिंदू रणनीतियों को हिंदू धर्म के रूप में नए बौद्ध धर्म को फिर से पालतू बनाने के लिए लागू नहीं किया जाएगा।"
लेकिन उस रुझान का प्रारंभ कुछ पहले से ही हुआ। जीवनी लेखक कीर ने अंबेडकर पर अपनी पुस्तक में लिखा है कि वीडी सावरकर ने "घोषणा की कि बौद्ध अम्बेडकर एक हिंदू अम्बेडकर थे।" हिंदुओं के एक वर्ग का हमेशा से यह तर्क रहा है कि बौद्ध धर्म हिंदू धर्म की एक शाखा से ज्यादा कुछ नहीं है।
हाल के दिनों में, धर्मों के विद्वान, अरविंद शर्मा ने अम्बेडकर के हिंदू धर्म के साथ निर्णायक रूप से टूटने पर आश्चर्य व्यक्त किया है, जो उन्हें लगता है कि दो धर्मों के इतिहास के विपरीत है। हिंदुत्व के प्रकाश में आधुनिकता नामक एक लेख में, उन्होंने नोट किया:
"भारत में वे दो समुदाय जो भारतीय धार्मिक परंपरा से संबंधित हैं और समावेशी धार्मिक पहचान के बारे में सबसे कम उत्साही हैं, वे हैं अम्बेडकरवादी बौद्ध और सिख। अम्बेडकरवादी बौद्ध धर्म पारंपरिक बौद्ध धर्म से इस बात पर जोर देते हुए निकलता है कि बौद्ध धर्म में परिवर्तन के समय, उसके अनुयायी न केवल बौद्ध धर्म की स्वीकारोक्ति (बुद्ध को गले लगाकर, उनकी शिक्षा और उनके आदेश) को स्वीकार करते हैं, बल्कि हिंदू धर्म को भी त्याग देते हैं।"
शर्मा का विचार है कि दोनों धर्म कमोबेश बिना किसी महत्वपूर्ण पारस्परिक विशिष्टता के साथ-साथ मौजूद थे। लेकिन जैसा कि लाल मणि जोशी ने अपनी पुस्तक 'डिस्कर्निंग द बुद्धा' में उल्लेख किया है, "ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म असहिष्णुता और बौद्ध धर्म के प्रति शत्रुता का प्रमाण है ..."
हिंदुओं के एक वर्ग का हमेशा से यह तर्क रहा है कि बौद्ध धर्म हिंदू धर्म की एक शाखा से ज्यादा कुछ नहीं है
अम्बेडकर ने स्वयं अपनी कृति 'क्रांति और प्रतिक्रान्ति' में कहा था कि "हर कोई जो भारत के इतिहास को समझने में सक्षम है, उसे पता होना चाहिए कि यह ब्राह्मणवाद और बौद्ध धर्म के बीच वर्चस्व के संघर्ष के इतिहास के अलावा और कुछ नहीं है।"
इनमें से कोई भी हिंदुओं के एक वर्ग के प्रयासों को लगातार हिंदू धर्म में बौद्ध धर्म को शामिल करने की कोशिश करने से रोकता या हतोत्साहित नहीं करता है। सितंबर 2021 में, अमेरिका में कई संगठनों, जिनमें ज्यादातर हिंदू-दक्षिणपंथी झुकाव वाले थे, जैसे कि विश्व हिंदू परिषद (VHPA), हिंदू स्वयंसेवक संघ (HSS) और अन्य ने अक्टूबर के महीने को हिंदू विरासत माह के रूप में घोषित किया।
उनकी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है:
"दुनिया भर के हिंदू, सिख, बौद्ध और जैन परंपराओं सहित धर्म-आधारित संगठन, अक्टूबर में हिंदू विरासत माह के रूप में एक और प्रमुख त्योहार, वास्तव में त्योहारों के पूरे महीने को जोड़ने की घोषणा करते हुए प्रसन्न हैं।"
जैसा कि उनका रवैय्या है, उन्होंने बिना किसी समस्या के सिख, बौद्ध और जैन परंपराओं को "धर्म-आधारित संगठनों" के तहत शामिल किया और उन सभी को हिंदू करार दिया, जो स्पष्ट रूप से एक हिंदू विरासत माह आयोजित करने के लिए काम कर रहे थे, कम नहीं।
यह पूरी तरह से एक और बात है कि हिंदू लोगों के अलावा लगभग किसी भी संगठन को उनके सहयोगियों के रूप में सूचीबद्ध नहीं किया गया है, जो धर्म-आधारित या हिंदू शब्द के तहत अन्य परंपराओं को उपयुक्त बनाने के उनके प्रयास को झूठ बोलते हैं।
लेकिन अम्बेडकर ने हिंदू-पंथ को पीछे छोड़कर बुद्ध धम्म को अपनाने का सोच-समझकर चुनाव किया था। अपनी पुस्तक 'बुद्ध और उनका धम्म' की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा: "मैं बुद्ध के धम्म को सर्वश्रेष्ठ मानता हूं। इसकी तुलना किसी धर्म से नहीं की जा सकती।"
धर्मांतरण के एक दिन बाद 15 अक्टूबर 1956 को नागपुर में अपने भाषण में, जैसा कि उनके सहयोगी नानक चंद रत्तू द्वारा पुन: प्रस्तुत किया गया था, उन्होंने बौद्ध ग्रंथों के एक पाली-भाषा उद्धरण के साथ समाप्त किया:
"चरथ भिक्कवे चरिकं बहुजन हिताय बहुजन सुखाय लोकानुकंपाय... देश भिक्कवे धम्मम आदि कल्याणम मज्जे कल्याणं परियोसने कल्याणम् (जाओ, हे भिक्षुओ और बहुतों के लाभ के लिए, दुनिया के कल्याण के लिए, कई लोगों के कल्याण के लिए आगे बढ़ो।) ..तुम उस धम्म का प्रचार करो जो शुरू में फायदेमंद, मध्य में फायदेमंद और अंत में फायदेमंद)...तो, भाइयों और बहनों, यह मेरा धर्म है।"
अम्बेडकर बहुसंख्यकवाद की शक्तियों और धर्मांतरण के कार्य के लिए हिंदुओं के एक विशाल बहुमत की शत्रुता से अच्छी तरह वाकिफ थे। तथाकथित अछूतों के लिए धर्मांतरण के लाभों के बारे में सवालों से उन पर लगातार हमला किया गया था। वह ऐतिहासिक दुश्मनी से भी अच्छी तरह वाकिफ थे जोकि कई ब्राह्मण बौद्धों के प्रति रखते थे।
यह नए धर्मान्तरित लोगों को चौतरफा उपहास और संदेह से बचाने के लिए था कि उन्होंने अपने 22-प्रतिज्ञाओं के माध्यम से यह सुनिश्चित करने की मांग की कि रूपांतरण (हिंदू धर्म) से एक सचेत रूपांतरण था, जबकि एक ही समय में (बौद्ध धर्म) में रूपांतरण था। उन्होंने कभी भी हिंदू धर्म के भीतर आस्थाओं के एक सौम्य परिवार से संबंधित बौद्ध धर्म के बारे में कोई भ्रम नहीं रखा। उन्होंने हिंदू धर्म पर बौद्ध धम्म को निर्णायक रूप से चुना था
*दिल्ली एनसीआर में स्थित लेखक

भारत में बौद्ध धर्म का पुनर्जागरण एवं डा. अंबेडकर का योगदान

 

भारत में बौद्ध धर्म का पुनर्जागरण एवं डा. अंबेडकर का योगदान

- एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट 

  

बौद्ध धर्म दुनिया के महान धर्मों में से एक है जिसमें ईश्वर का कोई स्थान नहीं है और न ही स्वर्ग का लालच तथा नरक का भय दिखा कर लोगों को डसका पालन करने की शिक्षा दी गई है। परंतु मानव को दुख, अज्ञानता और अंध विश्वासों से मुक्त करने तथा मानवता का स्तर ऊंचा उठाने में जो भूमिका बौद्ध धम्म ने निबाही है वह किसी अन्य धर्म ने नहीं निभाई है।

धर्म के इतिहास में बौद्ध धर्म का विशेष स्थान है। भगवान बुद्ध के बाद पैदा होने वाले सभी धर्मों पर भगवान बुद्ध की शिक्षा तथा बौद्ध धम्म की  कार्यपद्धति का प्रभाव पड़ा है। स्वयं हिन्दू धर्म के अनुयाइयों ने ब्राह्मण धर्म को मजबूत बनाने के लिए बौद्ध धर्म के विहारों, मंदिरों आदि पर कब्जा ही नहीं किया बल्कि भगवान बुद्ध की शिक्षाओं को भी अपने धर्म ग्रंथों में शामिल किया है गीत इसकी सबसे बड़ी उदाहरण है जिसमें धम्मपद से पूरे के पूरे पद लिए गए हैं। बौद्ध धर्म के बाद का हिन्दू धर्म बौद्ध धर्म के पहले के ब्राह्मण धर्म से कई बातों से भिन्न है।

बौद्ध धर्म भारत में पैदा हुआ। उसका लक्ष्य बहुजन के हित  और बहुजन के सुख के लिए काम करना था। बौद्ध धर्म सुधारवादी धर्म नहीं था और न ही उसका उद्देश्य ब्राह्मण धर्म में सुधार करना था। बौद्ध धर्म सम्पूर्ण क्रांति लाने वाला धर्म था। इस लिए उसमें ईश्वर पर विश्वास, वेदों, हवनों, यज्ञों, पशुबलि  तथा वर्ण व्यवस्था के लिए कोई जगह नहीं थी। बौद्ध धर्म सहनशीलता का हामी था। इस लिए बौद्ध शासकों ने धार्मिक स्वतंत्रता तथा सहनशीलता को अपनाए रखा। परंतु बौद्ध धर्म के विरोधी उसे खत्म करने में लगातार लगे रहे। उसका बड़ा कारण यह था कि बौद्ध धर्म व्यक्ति को सोचना सिखाता था। दूसरे समता, स्वतंत्रता, करुणा तथा मैत्री को प्रोत्साहन देता था। बौद्ध संघ में ब्राह्मण जाति में जन्मा व्यक्ति तथा भंगी जाति में जन्मा व्यक्ति बराबर का सदस्य था। शंकराचार्य, मंडन मिश्र तथा कुमारिल भट्ट के नेतृत्व में बौद्ध धर्म को नष्ट करने का काम शुरू किया हुआ। पुष्यमित्र शुंग, शशांक तथा मिहिरकुल हिन्दू राजाओं ने हिंसा का प्रयोग करके उसका नामोनिशान मिटाने की कोशिश की। 10वी व 11वीं  शताब्दी में मुसलमान आक्रमण हुए। आक्रमण करने वाले तुर्क, अरबी, ईरानी, मुगल तथा अफगानों ने दौलत लूटने के उद्देश्य से बौद्ध विहारों को लूटा तथा पुस्तकालयों को नष्ट किया और बुतपरस्ती (बुद्धपपरस्ती)  तथा मूर्तिपूजा के नाम पर पीले चीवर पहने और आसानी से पहचाने जाने वाले बौद्ध भिक्षुओं का कत्ले आम किया। परंतु फिर भी 14वीं -15वीं सदी तक बौद्ध धर्म भारत के कुछ हिस्सों में आखिरी सांसें लेता रहा। अंग्रेजी राज स्थापित होने के समय तक बौद्ध धर्म करीब-करीब समाप्त हो चुका था। केवल दूर पूर्व तथा पहाड़ी इलाकों में कुछ बौद्ध कबीले खासी, चकमा, गारो आदि बचे रहे।     

उस समय भारत में रहने वाले बौद्धों पर दो तरफ से हमले हो रहे थे। एक ईसाई मिशनरियों की  तरफ से और दूसरा ब्राह्मण धर्म के अनुयाइयों की ओर से। बंगाल, ओडिसा, आसाम तथा हिमाचल के पहाड़ी इलाकों में रहने वाले बौद्ध अपना अस्तित्व बचाए रखने का प्रयत्न कर रहे थे। कुछ नवयुवक बौद्ध भिक्षु श्रीलंका, बर्मा और तिब्बत आदि देशों में बौद्ध धर्म की शिक्षा के लिए जाने लगे। पिछली शताब्दी से पच्छिमी देशों में बौद्ध धर्म में नई दिलचस्पी पैदा होने लगी। इस संबंध में भारत में बौद्ध धर्म के बारे में कई खोजें और शोध होने लगे। जमीन की परतों तले दबे बौद्ध विहारों तथा स्तूपों को ढूंढा जाने लगा। भूली हुई, तबाह की गई मूर्तियों, विहारों, स्तूपों आदि कि पहचान की जाने लगी। इसी काल में बौद्ध धर्म पर कई किताबें लिखी जाने लगीं और बुद्धिवादी वर्ग और पच्छिमी शिक्षा से प्रभावित लोग बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित होने लगे।

बौद्ध धर्म और बौद्ध धर्म से संबंधित स्थानों तथा साहित्य की खोज में ब्रिटिश तथा अन्य योरपीय इतिहासकारों, धार्मिक  विद्वानों तथा पुरातत्ववादियों का बहुत बड़ा  योगदान रहा है।अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कई हिन्दू विद्वानों तथा राजनेताओं ने भी बौद्ध धर्म में काफी दिलचस्पी दिखाई। उनमें रवीन्द्रनाथ टैगोर, सर्वपल्ली राधाकृष्णन और जवाहर लाल नेहरू आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। उन्होंने अपनी पुस्तकों में बौद्ध धर्म की प्रशंसा की है परंतु इसे भारत में पुनर्जीवित करने, उसे अपनाने या प्रचार प्रसार करने की उन्हें न तो जरूरत थी और न ही उनका उद्देश्य ही था।

ब्रिटिश राज के दौरान उत्तर पूर्व तथा उत्तर पच्छिम भारत में रहने वाले बौद्धों में भी कुछ जागृति आने लगी थी। यह वह जमाना था जब ऊंची जातियों में जन्में हिन्दू नेता अपनी तेजी से गिरती जन संख्या से चिंतित हो कर हिन्दू धर्म की रक्षा तथा उसे मजबूत बनाने के लिए कई तरीके अपनाने लगे थे। कलकत्ता विश्वविद्यालय में पालि भाषा पढ़ाई जाने लगी। श्रीलंका में जन्मे डेविड हेवीतरने अनागरिक धर्मपाल ने बोधगया स्थित महाबोधि बुद्ध विहार को हिन्दू महंतों के हाथों से मुक्त कराने का आंदोलन शुरू किया था। उन्होंने महाबोधि सोसाइटी की स्थापना की थी और “महाबोधि” पत्रिका भी शुरू की थी। कलकत्ता स्थित एशयाटिक सोसायटी भी बौद्ध धर्म के अध्ययन और शोध करने वालों को आकर्षित करने  लगी थी।

इसी दौरान राहुल सांकृत्यायन, जगदीश कश्यप, धम्मानंद कौसम्बी, भदंत आनंद कौशल्यायन, बोधानंद,  लालमनी जोशी, जगन नाथ उपाध्याय आदि बौद्ध विद्वानों के कई नाम उभर कर सामने आए परंतु एक बौद्ध समाज पैदा नहीं हो सका।

दक्षिण भारत (तमिलनाडु) में दलित वर्ग में जन्मे बौद्ध धर्म के अनुयायी आयोतिदास ने बौद्ध धर्म को पुनर्जीवित करने का काम शुरू किया परंतु वह आंदोलन बहुत आगे नहीं बढ़ सका। इसी दौरान वहीं पर पी लक्ष्मी नारसू ने बौद्ध धर्म पर Essence of Buddhism (बौद्ध धर्म का सार) नामक किताब लिखी जो गैर ब्राह्मण बुद्धिवादी लोगों के लिए प्रेरणा का श्रोत बनी। डा. अंबेडकर ने भी इस पुस्तक की बहुत प्रशंसा की थी तथा उसे पुनः छपवाया भी था।

इस सब बौद्ध प्रेमियों के योगदान को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। परंतु भारत में बौद्ध धर्म को पुनर जीवित करने का श्रेय डा. बाबासाहेब अंबेडकर को ही जाता है। उन्होंने न सिर्फ बौद्ध धर्म का अध्ययन किया, लेख लिखे, भाषण दिए, बाईबल की तरह Buddha and His Dhamma (बुद्ध और उनका धर्म) नाम की किताब भी लिखी बल्कि बौद्ध धर्म को फिर से भारत में जीवित करने के लिए जो काम किया वह शायद कोई दूसरा नहीं कर सकता था। उनके एक आवाहन पर 14 अक्तूबर, 1956 को 5 लाख दलितों ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था। धर्म के इतिहास में यह एक ऐसी घटना थी जिसकी मिसाल दुनिया में कहीं नहीं मिलती। कभी भी कहीं भी एक व्यक्ति के कहने पर पुराने धर्म, विश्वास और रीति रिवाज को छोड़ कर इतनी बड़ी संख्या में लोगों ने एक व्यक्ति के कहने पर एक धर्म को स्वीकार नहीं किया।

यह बात सही है कि भारत में पहले भी विभिन्न कारणों जैसे व्यक्तिगत लाभ, सामाजिक समानता एवं जातिगत उत्पीड़न से मुक्ति के लिए इस्लाम और ईसाई धर्म ग्रहण करते रहे हैं परंतु 14 अक्तूबर, 1956 को नागपुर में लाखों की संख्या में इकट्ठा हो कर बौद्ध धर्म ग्रहण करने वाले स्त्री-पुरुषों के सामने न तो चमत्कारों का प्रभाव था, न तलवार का डर था और न ही अच्छी नौकरी पाने या दौलत का लालच था। उन लाखों लोगों का उद्देश्य केवल बाबासाहेब अंबेडकर पर श्रद्धा और विश्वास जाहिर करते हुए भगवान बुद्ध के धर्म को अपना कर अपनी धार्मिक स्वतंत्रता कि घोषणा  करना था। बुद्ध धर्म और संघ की शरण में जा कर उन्हें कोई भौतिक लाभ नहीं मिलने वाला था बल्कि इसके विपरीत उन्हें संविधान के अंतर्गत मिलने वाला आरक्षण तथा शिक्षा में छात्रवृति की सुविधाएं छिन जाने का डर था। परंतु फिर भी साहसी लोगों ने खुल कर बौद्ध धर्म अपनाया और अपनी जीवन पद्धति तथा रीति रिवाजों को बदल डाला।

1956 में बौद्ध धर्म अपनाने वालों में दो प्रकार के लोग थे। लगभग 1,50,000 बौद्ध ऐसे थे जो परंपरागत बौद्ध थे क्योंकि वे बौद्ध परिवारों में जन्मे थे। उनके रीति रिवाजों पर बौद्ध धर्म तथा क्षेत्रीय सभ्यता का प्रभाव था। उन पर हिन्दू धर्म की गहरी छाप थी। दूसरा वर्ग वह था जिन्होंने बाबासाहेब के आवाहन से हिन्दू धर्म को नकारा था और बौद्ध धर्म ग्रहण किया था। उनके सामने एक समस्या थी कि बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद वे इस पर अमल कैसे करें। पुराने बौद्धों से उन्हें कोई प्रेरणा या सहायता नहीं मिल सकती थी क्योंकि भारत के पच्छिम में स्थित हिमाचल, लद्दाख और तिब्बत के बौद्ध न तो उन्हें अपना सकते थे और न ही उनका बौद्ध धर्म दलितों में से बने नवबौद्ध  स्वीकार कर सकते थे। वे तो स्वयं अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे थे। एक बड़ा कारण यह भी था कि हिन्दू धर्म के नेताओं के दुष्प्रचार के कारण उनमें से बहुत से लोग नव बौद्धों से नफरत करते थे। इस लिए परंपरागत बौद्धों से कुछ भी सीखने की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। दूसरे उनके रीति-रिवाजों पर ब्राह्मण धर्म और तिब्बत के लामा धर्म का प्रभाव था जिसे नवबौद्ध स्वीकार नहीं कर सकते थे क्योंकि उनका दृष्टिकोण वैज्ञानिक एवं आधुनिक था।

बाबासाहेब द्वारा चलाया गया यह शुद्ध बौद्ध आंदोलन एक नया स्वतंत्र आंदोलन था। बाबासाहेब ने उसे अपने ढंग से चलाने का प्रोग्राम बनाया था। इसकी रूपरेखा उनके 1950 में महाबोधि पत्रिका में छपे लेख “बुद्ध और उनके धम्म का भविष्य” में मिलती है। इस लेख में बाबासाहेब ने बौद्ध धर्म के प्रचार- प्रसार के लिए तीन बातों का उल्लेख किया था-

1.  एक बुद्धिस्ट बाइबल की रचना की जाए।  

2.  भिखु संघ के संगठन में परिवर्तन लाया जाए।

3.  एक विश्व बुद्धिस्ट मिशन स्थापित किया जाए।

बौद्ध धर्म के लिए बाइबल जैसी एक पुस्तक का निर्माण करना प्रथम आवश्यकता थी क्योंकि बौद्ध वांगमय अति विशाल है और आम आदमी के लिए इस वांगमय को पढ़ना असंभव है। बाबासाहेब के अनुसार प्रस्तावित बौद्ध ग्रंथ में (1) बुद्ध का संक्षिप्त जीवन चरित्र, (2) चीनी धम्मपद, (3) बुद्ध के महत्वपूर्ण उपदेश और (4) जन्म, धर्म दीक्षा, विवाह और मृत्यु संबंधी संस्कार विधि होना चाहिए। बाबासाहेब ने स्वयं कई साल से इस प्रकार की पुस्तक तैयार करने में लगाए और कई मसौदों को दुनिया के प्रसिद्ध विद्वानों को टिप्पणी के लिए भेजा और निर्वाण के कुछ घंटे पहले (6 दिसंबर, 1956) को उसे अंतिम रूप दिया। बाद में यह पुस्तक ”Buddha and Hs Dhamma” (बुद्ध और उनका धम्म) नाम से 1957 में छपी।

भिखु संघ में सुधार लाने हेतु उन्होंने  अपने विचार कई जगह व्यक्त किए हैं। भिक्षु को वे एक मिशनरी के रूप में देखना चाहते थे जो समाज में रह कर आम आदमी को धम्म का सही रास्ता दिखाए।

बाबासाहेब एक आधुनिक ढंग का विश्व बौद्ध मिशन स्थापित करना चाहते थे परंतु वे अपने जीवन काल में ऐसा मिशन स्थापित नहीं कर सके. इस दिशा में कुछ काम जापान, कोरिया, ताइवान, थाइलैंड तथा इंग्लैंड में हुआ है। साकागाकाई, रिओकाई, रिसोकोसकाई नामक संगठन जापान में अपने ढंग से काम कर रहे हैं। ताइवान स्थित “बुद्ध एजुकेशनल फाउंडेशन”, “बुद्धिस्ट लाइट इंटरनेशनल” कैलिफोरनियाँ से “वर्ल्ड बुद्धिस्ट आर्गेनाइजेशन” इंग्लैंड से बौद्ध धर्म का प्रचार कर रही है। विश्व में बौद्ध धर्म में लोगों की रुचि बढ़ रही है। जर्मनी, इटली, अमेरिका और ब्रिटेन में कई संस्थाएं तथा विद्वान उभरे हैं जो बौद्ध धर्म पर शोध कर रहे हैं।  

बाबासाहेब ने भारत में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए “बुद्धिस्ट सोसाइटी आफ इंडिया” (भारतीय बौद्ध महासभा) की स्थापना की थी। इसके अतिरिक्त अन्य कई संस्थाएं/व्यक्ति बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में लगे हैं।

बाबासाहेब अंबेडकर ने 1950 में लिखे लेख में विवाह और मृत्यु संबंधी संस्कार विधि का उल्लेख किया था। उन्होंने 1956 में दीक्षा के समय दिए गए भाषण और बाईस प्रतिज्ञाओं में किसी भी संस्कार को ब्राह्मणों द्वारा न कराने की बात कही थी। वह चाहते थे कि 20वीं शताब्दी में बौद्ध पूर्ण रूप से ब्राह्मण धर्म से स्वतंत्र हों और अपनी अलग पहचान बनाएं। दूसरे वे नहीं चाहते थे कि पुरानी गलती दोहराई जाए जो भगवान बुद्ध के बाद बहुत से गृहस्थी संस्कारों के मामले में करते आए थे और जिस का अभी भी खतरा है। भगवान बुद्ध के धर्म को अपना कर बहुत से लोग उनके संघ में शामिल हो गए परंतु उपासक-उपासिकाएं ब्राह्मणों को बुला कर सामाजिक संस्कार करवाते थे। इस के जीवित उदाहरण लाओस, कंबोडिया, थाईलैंड आदि बौद्ध देशों में हैं। भारत में भी लोग नया धर्म अपना कर भी पुराने संस्कारों, रूढ़ियों तथा रीति रिवाजों से चिपके रहते हैं भले ही वे उनके के नए धर्म की शिक्षा तथा आदेशों के खिलाफ हों। भारत में नवबौद्धों में भी यह विरोधाभास पर्याय परिलक्षित होता है।

डा. अंबेडकर द्वारा 1956 में चालू किया गया बौद्ध धर्म आंदोलन लगातार अग्रसर हो रहा है। हरेक जनगणना में बौद्धों की जनसंख्या में बढ़ोतरी हो रही है। सन 1951 में बौद्धों की जनसंख्या केवल 1,41,426 थी जो भारत की कुल जनसंख्या का केवल 0.04% थी। 1981 में यह बढ़ कर 32,00,336 अर्थात कुल जनसंख्या का 0.73 प्रतिशत थी तथा 1991 में 63,87,500 अर्थात कुल जनसंख्या का 0.77 प्रतिशत हो गई थी। वर्ष 2001 की जनगणना में बौद्धों की जनसंख्या 79,55,207 अर्थात कुल जनसंख्या का 0.8 थी।  अब 2011 की जनगणना के अनुसार देश में बौद्धों की जनसंख्या 84.43 लाख हो गई है जोकि कुल जनसंख्या का 0.7  प्रतिशत है। यह चिंता की बात है कि 2011 की  जनगणना में बौद्धों की जनसंख्या के वृद्धि दर में कमी आई है। इसके बावजूद यह बड़े संतोष की बात है कि इन आंकड़ों के अनुसार बौद्ध पुरुष और महिलाओं का लैंगिक अनुपात 965 है जब कि हिन्दुओं का 939, मुसलामानों का 951 और सिक्खों का 903 है. इसी प्रकार 0-6 वर्ष आयु के बौद्ध लड़के लड़कियों का लैंगिक अनुपात 933 है जबकि हिन्दुओं का 913, मुसलामानों का 943 और सिखों का केवल 828 है. इसी जनगणना के अनुसार बौद्धों का शिक्षा दर 81.3% है जबकि हिन्दुओं का 73.3% और मुसलामानों का 68.5% है इसी प्रकार बौद्धों का कार्य सहभागिता दर 43.1%है जबकि हिन्दुओं का 41%, मुसलामानों का 32.6% और सिखों का 36.3% है. इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि बौद्धों का लिंग अनुपात, शिक्षा दर और कार्य सहभागिता दर केवल हिन्दू दलितों बल्कि हिन्दुओं, मुसलामानों और सिखों से भी ऊँचा है जोकि उन की प्रगति का प्रतीक है। इससे यह भी दिखाई देता है कि जिन दलितों ने बौद्ध धर्म अपनाया है उन्होंने हिन्दू रहे दलितों की अपेक्षा बहुत प्रगति की है। यदि नवबौद्धों की जनसंख्या में इसी तरह से वृद्धि होती रही तो बाबासाहेब का भारत को बौद्धमय बनाने का सपना निकट भविष्य में अवश्य साकार हो सकेगा।

   

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