शुक्रवार, 18 मई 2012
बुधवार, 16 मई 2012
रविवार, 13 मई 2012
प्रो. पालशिकर ! मुझे खेद है : डॉ. आंबेडकर
प्रो. पालशिकर ! मुझे खेद है : डॉ. आंबेडकर
एस. आर. दारापुरी
प्रो. पालशिकर कल आप के कार्यालय में तथाकथित रिपब्लिकन पार्टी के चार सदस्यों दुआरा मेरे कार्टून को लेकर जो तोड़फोड़ की गयी उसके लिए मुझे बहुत खेद है. मुझे विश्वास है कि शायद वे नहीं जानते कि उन्होंने क्या किया है. इस लिए आप उन्हें माफ़ करदें. उनके इस कृत्य पर मैं भी बहुत दुखी हूँ कि उन्होंने ऐसा क्यों किया. मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि ऐसा करके उन्होंने मेरे कौन से आदर्श की पूर्ती की है. मैं तो जीवन भर दलितों के बोलने की आज़ादी की लडाई लड़ता रहा क्योंकि दलित सदियों से चुप्पी का शिकार रहे हैं. उन्हें सदियों से गूंगे बहरे बना कर रखा गया था. वे सदियों से सभी प्रकार का अपमान सह कर चुप रहने के लिए बाध्य किये गए. मैंने भी यह सब झेला. पढ़ लिख कर मैं उनकी ज़ुबान बना और मैंने उन्हें ज़ुबान देने की जीवन भर कोशिश की. परन्तु कल उन्होंने आप के साथ ऐसा करके मेरी ज़ुबान ही बंद कर दी .
नहीं ! मैं चुप नहीं रह सकता. मैं इस घटना पर अवश्य बोलूँगा क्योंकि यह सब कुछ मेरे नाम पर किया गया है. मुझे पता चला है कि यह सब एक पुस्तक में मेरे से सम्बंधित एक कार्टून को लेकर किया गया है. इस में मुझे अपमानित किये जाने का बहाना लेकर पहले तो पार्लिआमेंट में मेरे अति उत्साही अनुयायिओं ने दिनभर हंगामा किया और सदन का काम काम काज नहीं चलने दिया. कुछ ने तो पुस्तक को तैयार करने वाले विद्वानों पर एससी एसटी एक्ट के अंतर्गत मुकदमा कायम करके कार्रवाही करने की मांग कर डाली. मेरे एक शुभचिंतक ने तो इन पुस्तकों को तैयार करने वाली संस्था को ही भंग करने का प्रशन उठा दिया. मुझे यह सब जान कर बहुत दुःख हुआ है. मैं तो जीवन भर पुस्तक प्रेमी रहा हूँ और मैंने जीवन भर अपनी लाईब्रेरी में सभी प्रकार की पुस्तकों का संग्रह किया और उन्हें पढ़ा भी था . अब अगर मेरे नाम पर किसी पुस्तक को प्रतिबंधित करने की मांग की जाती है तो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इस से मुझे कितना कष्ट होगा.
मुझे उम्मीद थी कि जब सदन में सरकार ने किसी औचित्य पर विचार किये बिना वोट की राजनीति के अंतर्गत केवल कुछ लोगों के दबाव में पुस्तक में से उस कार्टून को निकाल देने का आश्वासन दे दिया था तो उन्हें शांत हो जाना चाहिए था परन्तु उन्हें इस से भी संतुष्टि नहीं मिली और कल उन्होंने आप के कार्यालय में आ क़र तोड़फोड़ की कार्रवाही की जो कि मेरे दुआरा अपने विरोधियों के तमाम कटाक्षों और आलोचनायों को धैर्य से सुनने और शालीनता से उनका उत्तर देने के स्वभाव का अपमान है. मैंने तो अपने जीवन में कितने कटाक्षों और आलोचनाओ का सामना किया था परन्तु मैं ने कभी भी अपना मानसिक संतुलन नही खोया था. मैं तो जीवन भर वाल्टेयर के उस कथन का कायल रहा हूँ जिस में उसने कहा था ," मैं आप से सहमत न होते हुए भी आप के ऐसा कहने के अधिकार की आखरी सांस तक रक्षा करूँगा." मैंने गाँधी, नेहरु, पटेल न जाने कितने लोगों से गंभीर मुद्दों पर बहसें की थीं परन्तु मैंने कभी भी विरोधियों के कथन को दबाने की कोशिश नहीं की बल्कि हमेशा तर्क और तथ्यों सहित शालीनतापूर्वक उनका उत्तर दिया था . मैंने तो गाँधी जी को भी पहली मीटिंग में ही कहा था, "अगर आप मुझे मारना चाहते हैं तो सिद्धांतो से मारिये भावनायों से नहीं." अब अगर कुछ लोग मेरे नाम पर वार्तालाप का रास्ता छोड़ कर तोड़फोड़ का रास्ता अपनाते हैं तो यह मेरे सिद्धांतों के बिलकुल खिलाफ है.
जिस कार्टून को लेकर ये सब हंगामा खड़ा किया गया है वह कार्टून तो १९४९ में मेरे सामने ही छपा था. मैं ने भी उसे देखा था और उसमे शंकर के संविधान निर्माण की धीमी गति को लेकर किये गए व्यंग और चिंता को भी पहचाना था. मुझे यह बहुत अच्छा लगा था. नेहरु और हम दोनों ही संविधान निर्माण की धीमी गति को लेकर चिंतित रहते थे परन्तु संविधान निर्माण की प्रक्रिया में ऐसा होना स्वाभाविक था. बाद में मैंने २५ नवम्बर, १९४९ को संविधान को अंगीकार करने वाले भाषण में संविधान निर्माण में लगे समय के औचित्य के बारे में सफाई भी दी थी. मुझे ज्ञात हुआ है कि उक्त कार्टून वाली पुस्तक में भी संविधान निर्माण की धीमी गति के कारणों का उल्लेख किया गया था और कार्टून के माध्यम से इस के बारे में छात्रों से प्रशन पूछा गया था. काश ! कार्टून में मेरे अपमान के नाम पर तोड़फोड़ और हंगामा करने वालों ने भी पुस्तक में कार्टून के सन्धर्भ को पढ़ा होता तो शायद वे ऐसा नहीं करते.
मैंने जीवन भर विरोध के संविधानिक तरीकों की ही वकालत की थी. मैंने अपने जीवन काल में जो भी आन्दोलन किये वे सभी शांति पूर्ण और कानून के दायरे में ही थे. मैं ने कभी भी हिंसा और तोड़फोड़ की सलाह नहीं दी थी. मेरे नाम पर तोड़फोड़ करने वालों को मैं सलाह दूंगा कि वे मेरे संविधान अंगीकार के अवसर पर दिए भाषण के उस अंश को ज़रूर पढ़ लें जिस में मैंने कहा था, "हमें सत्याग्रह, असहयोग और अवज्ञा के तरीको को छोड़ देना चाहिए. जब सामाजिक और आर्थिक उद्धेश्यों को संवैधानिक तरीके से प्राप्त करने के साधन न बचे हों तो तो गैर संवैधानिक तरीके अपनाने का कुछ औचित्य हो सकता है. परन्तु जहाँ संवैधानिक तरीके उपलब्ध हों तो गैर संवैधानिक तरीकों को अपनाने का कोई औचित्य नहीं हो सकता. यह तरीके अराजकता का व्याकरण हैं और इन्हें जितनी जल्दी छोड़ दिया जाये उतना ही हमारे लिए अच्छा होगा."
मुझे आज यह देख कर बहुत दुःख होता है जब मैं देखता हूँ कि हमारे देश में विरोध की आवाज़ को सरकारी और गैर सरकारी तौर पर दबाने की कितनी कोशिश की जा रही है. मैं जानता हूँ कि हम लोगों ने संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समावेश कितनी उम्मीद के साथ किया था. आज मैं देखता हूँ कि कुछ लोग अपने संख्याबल या बाहुबल से कमज़ोर लोगों की सही आवाज़ को दबाने में सफल हो जाते हैं. आज की सरकारें भी इसी प्रकार से जनता की आवाज़ को दबा देती हैं. हमारे देश में से तर्क और बहस का माहौल ख़त्म हो चुका है. मैं जानता हूँ कि कुछ लोग धर्म अथवा सम्प्रदाय की भावनाओं के आहत होने की बात कर के दूसरों की आवाज़ को दबा देते हैं. मैंने देखा है कि किस तरह कुछ लोगों ने हो हल्ला करके शिवाजी पर लिखी गयी पुस्तक, तसलीमा नसरीन तथा सलमान रश्दी दुआरा लिखी गयी पुस्तकों को प्रतिबंधित करवा दिया था. इन लोगों ने तो मुझे भी नहीं बख्शा था. आप को याद होगा कि जब महारष्ट्र सरकार ने मेरी अप्रकाशित पुस्तक "रिडल्स इन हिन्दुइज्म' को प्रकाशित करवाया था तो किस प्रकार कुछ लोगों ने इसे हिन्दू तथा हिन्दू देवी देवता विरोधी कह कर इसे प्रतिबंधित करने की मांग उठाई थी. यह तो मेरे दलित अनुयायिओं और बुद्धिजीवियों का ही प्रयास था कि उन्होंने इस के पक्ष में बम्बई में भारी जन प्रदर्शन करके इसे बचा लिया था. परन्तु कल उन्होंने जो कुछ किया है वह तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बिलकुल खिलाफ है. कल अगर कुछ लोग मेरे दुआरा लिखी गयी पुस्तकों में अंकित आलोचना को लेकर मेरी पुस्तकों को प्रतिबंधित करने की मांग उठा दें तो दलितों के पास इस के विरोध का क्या तर्क बचेगा.
मैं समझता हूँ कि मेरे दलित अनुयायी ऐसा क्यों करते हैं. मैं जानता हूँ कि वे मेरा कितना सम्मान करते हैं. वे मुझ से भावनात्मक तौर पर किस सीमा तक जुड़े हुए हैं. जब कभी कोई भी उन्हें मेरे बारे में कुछ भी सही या गलत बता देता है तो वे भड़क जाते हैं और इस प्रकार की कार्रवाही कर बैठते हैं. इस में उनका कसूर नहीं हैं. वे अपने नेताओं दुआरा गुमराह कर दिए जाते हैं. उनमें से तो बहुतों ने मुझे पूरी तरह से पढ़ा भी नहीं है. अतः वे दूसरों दुआरा निर्देशित हो जाते हैं. मुझे लगता है दलितों ने मेरे " शिक्षित करो, संघर्ष करो और संघटित करो " नारे को सही रूप में समझा नहीं है. मुझे यह भी देख कर बहुत दुःख होता है कि मेरे नाम पर आज किस प्रकार की दलित राजनीति हो रही है. मेरे दुआरा बहुत उम्मीद के साथ बनायीं गयी रिपबल्किन पार्टी आज कितने टुकड़ों में बंट चुकी है और उसके नेता व्यक्तिगत लाभ के लिए किस तरह के सिद्धान्तहीन एवं अवसरवादी गठ जोड़ कर ले रहे हैं. वे दलितों के मुद्दों के स्थान पर विशुद्ध वोट बैंक और सत्ता की राजनीति कर रहे हैं और लोगों का भावनात्मक शोषण कर रहे हैं. इस कार्टून के मामले में भी ऐसा ही हो रहा है.
मुझे यह देख कर बहुत कष्ट होता है कि मेरे कुछ अतिउत्साही और अज्ञानी अनुयायियों ने मुझे केवल दलितों का ही मसीहा बना कर रख दिया है. मैं तो पूरे राष्ट्र का हूँ. मैंने जब स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की बात की थी तो यह केवल दलितों के लिए ही नहीं की थी. मैंने इसे देश के सभी लोगों के लिए माँगा था. मैंने जब हिन्दू कोड बिल बनाया था तो मैंने इस में सम्पूर्ण हिन्दू नारी की मुक्ति की बात उठाई थी. हाँ मैंने दलितों को कुछ विशेष अधिकार ज़रूर दिलाये थे जो कि उनको समानता का अधिकार प्राप्त कराने के लिए ज़रूरी थे. अतः मेरा अपने अनुयायिओं और प्रशंसकों से अनुरोध है कि वे मुझे एक जाति के दायरे में न बांध कर पूरे राष्ट्र के फलक पर देखें.
मेरा अपने अनुयायिओं से यह भी अनुरोध है कि वे मुझे देवता न बनायें क्योंकि मैं इन्सान के रूप में ही रहना पसंद करता हूँ. मुझे लगता है कि आप लोगों ने व्यक्ति पूजा के बारे में मेरे कहे गए उन शब्दों को भुला दिया है जिस में मैंने कहा था, " यदि आप ने शुरू में ही इसे ख़त्म नहीं किया तो व्यक्ति पूजा का विचार आप लोगों को बर्बाद कर देगा. किसी व्यक्ति को देवता बना कर आप अपनी सुरक्षा और मुक्ति के लिए एक व्यक्ति में विश्वास करने लगते हैं जिस का नतीजा यह होता है कि आप को आश्रित होने और अपने कर्तव्य से विमुख होने की आदत पड़ जाती है. अगर आप इन विचारों का शिकार हो गए तो आप की हालत राष्ट्रीय जीवन धारा में लकड़ी के लठ्ठे से भी बुरी हो जाएगी. आप का संघर्ष बिलकुल बेकार हो जायेगा." मुझे लगता है कि मेरे अनुयायी मेरे कार्टून पर आपत्ति करके मुझे देवता बनाने पर तुले हुए हैं. मैं किसी का भी पैगम्बर नहीं बनना चाहता. मैं बुद्ध की तरह एक इंसान ही रहना चाहता हूँ. मैंने अपने जीवन में कितने लोगों की कितनी कड़वी आलोचना की थी और अपनी आलोचना सही भी थी. दुनिया में कोई भी व्यक्ति गलती से परे नहीं है. अतः आलोचना सार्वजनिक का एक आवश्यक अंग है.
मैं अपने अनुयायियों से यह भी अनुरोध करता हूँ कि वे मेरे जीवन दर्शन और मेरे जीवन मूल्यों को सही तरीके से जानें और उन्हें अपने आचरण में उतारें. उन्हें यह भी स्पष्ट तौर पर समझ लेना चाहिए कि उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तभी सुरक्षित रहेगी जब वे दूसरों की स्वतंत्रता की रक्षा करेंगे अन्यथा वे देश में बढ़ते फासीवाद और कट्टरपंथ को ही मज़बूत करेंगे. मेरे नाम पर राजनीति करने वाले नेताओं से भी मुझे कहना है कि वे दलितों का भावनात्मक शोषण, वोट बैंक और जाति की राजनीति के स्थान पर मुदों पर आधारित मूल परिवर्तन की राजनीति करें जिस से न केवल दलितों बल्कि सभी भारतवासियों का कल्याण होगा.
प्रो. पालशिकर ! अन्तः में मैं आप के साथ मेरे तथाकथित कुछ अनुयायियों दुआरा किये गए दुर्व्यवहार के लिए पुनः खेद प्रकट करता हूँ.
एस. आर. दारापुरी
प्रो. पालशिकर कल आप के कार्यालय में तथाकथित रिपब्लिकन पार्टी के चार सदस्यों दुआरा मेरे कार्टून को लेकर जो तोड़फोड़ की गयी उसके लिए मुझे बहुत खेद है. मुझे विश्वास है कि शायद वे नहीं जानते कि उन्होंने क्या किया है. इस लिए आप उन्हें माफ़ करदें. उनके इस कृत्य पर मैं भी बहुत दुखी हूँ कि उन्होंने ऐसा क्यों किया. मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि ऐसा करके उन्होंने मेरे कौन से आदर्श की पूर्ती की है. मैं तो जीवन भर दलितों के बोलने की आज़ादी की लडाई लड़ता रहा क्योंकि दलित सदियों से चुप्पी का शिकार रहे हैं. उन्हें सदियों से गूंगे बहरे बना कर रखा गया था. वे सदियों से सभी प्रकार का अपमान सह कर चुप रहने के लिए बाध्य किये गए. मैंने भी यह सब झेला. पढ़ लिख कर मैं उनकी ज़ुबान बना और मैंने उन्हें ज़ुबान देने की जीवन भर कोशिश की. परन्तु कल उन्होंने आप के साथ ऐसा करके मेरी ज़ुबान ही बंद कर दी .
नहीं ! मैं चुप नहीं रह सकता. मैं इस घटना पर अवश्य बोलूँगा क्योंकि यह सब कुछ मेरे नाम पर किया गया है. मुझे पता चला है कि यह सब एक पुस्तक में मेरे से सम्बंधित एक कार्टून को लेकर किया गया है. इस में मुझे अपमानित किये जाने का बहाना लेकर पहले तो पार्लिआमेंट में मेरे अति उत्साही अनुयायिओं ने दिनभर हंगामा किया और सदन का काम काम काज नहीं चलने दिया. कुछ ने तो पुस्तक को तैयार करने वाले विद्वानों पर एससी एसटी एक्ट के अंतर्गत मुकदमा कायम करके कार्रवाही करने की मांग कर डाली. मेरे एक शुभचिंतक ने तो इन पुस्तकों को तैयार करने वाली संस्था को ही भंग करने का प्रशन उठा दिया. मुझे यह सब जान कर बहुत दुःख हुआ है. मैं तो जीवन भर पुस्तक प्रेमी रहा हूँ और मैंने जीवन भर अपनी लाईब्रेरी में सभी प्रकार की पुस्तकों का संग्रह किया और उन्हें पढ़ा भी था . अब अगर मेरे नाम पर किसी पुस्तक को प्रतिबंधित करने की मांग की जाती है तो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इस से मुझे कितना कष्ट होगा.
मुझे उम्मीद थी कि जब सदन में सरकार ने किसी औचित्य पर विचार किये बिना वोट की राजनीति के अंतर्गत केवल कुछ लोगों के दबाव में पुस्तक में से उस कार्टून को निकाल देने का आश्वासन दे दिया था तो उन्हें शांत हो जाना चाहिए था परन्तु उन्हें इस से भी संतुष्टि नहीं मिली और कल उन्होंने आप के कार्यालय में आ क़र तोड़फोड़ की कार्रवाही की जो कि मेरे दुआरा अपने विरोधियों के तमाम कटाक्षों और आलोचनायों को धैर्य से सुनने और शालीनता से उनका उत्तर देने के स्वभाव का अपमान है. मैंने तो अपने जीवन में कितने कटाक्षों और आलोचनाओ का सामना किया था परन्तु मैं ने कभी भी अपना मानसिक संतुलन नही खोया था. मैं तो जीवन भर वाल्टेयर के उस कथन का कायल रहा हूँ जिस में उसने कहा था ," मैं आप से सहमत न होते हुए भी आप के ऐसा कहने के अधिकार की आखरी सांस तक रक्षा करूँगा." मैंने गाँधी, नेहरु, पटेल न जाने कितने लोगों से गंभीर मुद्दों पर बहसें की थीं परन्तु मैंने कभी भी विरोधियों के कथन को दबाने की कोशिश नहीं की बल्कि हमेशा तर्क और तथ्यों सहित शालीनतापूर्वक उनका उत्तर दिया था . मैंने तो गाँधी जी को भी पहली मीटिंग में ही कहा था, "अगर आप मुझे मारना चाहते हैं तो सिद्धांतो से मारिये भावनायों से नहीं." अब अगर कुछ लोग मेरे नाम पर वार्तालाप का रास्ता छोड़ कर तोड़फोड़ का रास्ता अपनाते हैं तो यह मेरे सिद्धांतों के बिलकुल खिलाफ है.
जिस कार्टून को लेकर ये सब हंगामा खड़ा किया गया है वह कार्टून तो १९४९ में मेरे सामने ही छपा था. मैं ने भी उसे देखा था और उसमे शंकर के संविधान निर्माण की धीमी गति को लेकर किये गए व्यंग और चिंता को भी पहचाना था. मुझे यह बहुत अच्छा लगा था. नेहरु और हम दोनों ही संविधान निर्माण की धीमी गति को लेकर चिंतित रहते थे परन्तु संविधान निर्माण की प्रक्रिया में ऐसा होना स्वाभाविक था. बाद में मैंने २५ नवम्बर, १९४९ को संविधान को अंगीकार करने वाले भाषण में संविधान निर्माण में लगे समय के औचित्य के बारे में सफाई भी दी थी. मुझे ज्ञात हुआ है कि उक्त कार्टून वाली पुस्तक में भी संविधान निर्माण की धीमी गति के कारणों का उल्लेख किया गया था और कार्टून के माध्यम से इस के बारे में छात्रों से प्रशन पूछा गया था. काश ! कार्टून में मेरे अपमान के नाम पर तोड़फोड़ और हंगामा करने वालों ने भी पुस्तक में कार्टून के सन्धर्भ को पढ़ा होता तो शायद वे ऐसा नहीं करते.
मैंने जीवन भर विरोध के संविधानिक तरीकों की ही वकालत की थी. मैंने अपने जीवन काल में जो भी आन्दोलन किये वे सभी शांति पूर्ण और कानून के दायरे में ही थे. मैं ने कभी भी हिंसा और तोड़फोड़ की सलाह नहीं दी थी. मेरे नाम पर तोड़फोड़ करने वालों को मैं सलाह दूंगा कि वे मेरे संविधान अंगीकार के अवसर पर दिए भाषण के उस अंश को ज़रूर पढ़ लें जिस में मैंने कहा था, "हमें सत्याग्रह, असहयोग और अवज्ञा के तरीको को छोड़ देना चाहिए. जब सामाजिक और आर्थिक उद्धेश्यों को संवैधानिक तरीके से प्राप्त करने के साधन न बचे हों तो तो गैर संवैधानिक तरीके अपनाने का कुछ औचित्य हो सकता है. परन्तु जहाँ संवैधानिक तरीके उपलब्ध हों तो गैर संवैधानिक तरीकों को अपनाने का कोई औचित्य नहीं हो सकता. यह तरीके अराजकता का व्याकरण हैं और इन्हें जितनी जल्दी छोड़ दिया जाये उतना ही हमारे लिए अच्छा होगा."
मुझे आज यह देख कर बहुत दुःख होता है जब मैं देखता हूँ कि हमारे देश में विरोध की आवाज़ को सरकारी और गैर सरकारी तौर पर दबाने की कितनी कोशिश की जा रही है. मैं जानता हूँ कि हम लोगों ने संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समावेश कितनी उम्मीद के साथ किया था. आज मैं देखता हूँ कि कुछ लोग अपने संख्याबल या बाहुबल से कमज़ोर लोगों की सही आवाज़ को दबाने में सफल हो जाते हैं. आज की सरकारें भी इसी प्रकार से जनता की आवाज़ को दबा देती हैं. हमारे देश में से तर्क और बहस का माहौल ख़त्म हो चुका है. मैं जानता हूँ कि कुछ लोग धर्म अथवा सम्प्रदाय की भावनाओं के आहत होने की बात कर के दूसरों की आवाज़ को दबा देते हैं. मैंने देखा है कि किस तरह कुछ लोगों ने हो हल्ला करके शिवाजी पर लिखी गयी पुस्तक, तसलीमा नसरीन तथा सलमान रश्दी दुआरा लिखी गयी पुस्तकों को प्रतिबंधित करवा दिया था. इन लोगों ने तो मुझे भी नहीं बख्शा था. आप को याद होगा कि जब महारष्ट्र सरकार ने मेरी अप्रकाशित पुस्तक "रिडल्स इन हिन्दुइज्म' को प्रकाशित करवाया था तो किस प्रकार कुछ लोगों ने इसे हिन्दू तथा हिन्दू देवी देवता विरोधी कह कर इसे प्रतिबंधित करने की मांग उठाई थी. यह तो मेरे दलित अनुयायिओं और बुद्धिजीवियों का ही प्रयास था कि उन्होंने इस के पक्ष में बम्बई में भारी जन प्रदर्शन करके इसे बचा लिया था. परन्तु कल उन्होंने जो कुछ किया है वह तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बिलकुल खिलाफ है. कल अगर कुछ लोग मेरे दुआरा लिखी गयी पुस्तकों में अंकित आलोचना को लेकर मेरी पुस्तकों को प्रतिबंधित करने की मांग उठा दें तो दलितों के पास इस के विरोध का क्या तर्क बचेगा.
मैं समझता हूँ कि मेरे दलित अनुयायी ऐसा क्यों करते हैं. मैं जानता हूँ कि वे मेरा कितना सम्मान करते हैं. वे मुझ से भावनात्मक तौर पर किस सीमा तक जुड़े हुए हैं. जब कभी कोई भी उन्हें मेरे बारे में कुछ भी सही या गलत बता देता है तो वे भड़क जाते हैं और इस प्रकार की कार्रवाही कर बैठते हैं. इस में उनका कसूर नहीं हैं. वे अपने नेताओं दुआरा गुमराह कर दिए जाते हैं. उनमें से तो बहुतों ने मुझे पूरी तरह से पढ़ा भी नहीं है. अतः वे दूसरों दुआरा निर्देशित हो जाते हैं. मुझे लगता है दलितों ने मेरे " शिक्षित करो, संघर्ष करो और संघटित करो " नारे को सही रूप में समझा नहीं है. मुझे यह भी देख कर बहुत दुःख होता है कि मेरे नाम पर आज किस प्रकार की दलित राजनीति हो रही है. मेरे दुआरा बहुत उम्मीद के साथ बनायीं गयी रिपबल्किन पार्टी आज कितने टुकड़ों में बंट चुकी है और उसके नेता व्यक्तिगत लाभ के लिए किस तरह के सिद्धान्तहीन एवं अवसरवादी गठ जोड़ कर ले रहे हैं. वे दलितों के मुद्दों के स्थान पर विशुद्ध वोट बैंक और सत्ता की राजनीति कर रहे हैं और लोगों का भावनात्मक शोषण कर रहे हैं. इस कार्टून के मामले में भी ऐसा ही हो रहा है.
मुझे यह देख कर बहुत कष्ट होता है कि मेरे कुछ अतिउत्साही और अज्ञानी अनुयायियों ने मुझे केवल दलितों का ही मसीहा बना कर रख दिया है. मैं तो पूरे राष्ट्र का हूँ. मैंने जब स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की बात की थी तो यह केवल दलितों के लिए ही नहीं की थी. मैंने इसे देश के सभी लोगों के लिए माँगा था. मैंने जब हिन्दू कोड बिल बनाया था तो मैंने इस में सम्पूर्ण हिन्दू नारी की मुक्ति की बात उठाई थी. हाँ मैंने दलितों को कुछ विशेष अधिकार ज़रूर दिलाये थे जो कि उनको समानता का अधिकार प्राप्त कराने के लिए ज़रूरी थे. अतः मेरा अपने अनुयायिओं और प्रशंसकों से अनुरोध है कि वे मुझे एक जाति के दायरे में न बांध कर पूरे राष्ट्र के फलक पर देखें.
मेरा अपने अनुयायिओं से यह भी अनुरोध है कि वे मुझे देवता न बनायें क्योंकि मैं इन्सान के रूप में ही रहना पसंद करता हूँ. मुझे लगता है कि आप लोगों ने व्यक्ति पूजा के बारे में मेरे कहे गए उन शब्दों को भुला दिया है जिस में मैंने कहा था, " यदि आप ने शुरू में ही इसे ख़त्म नहीं किया तो व्यक्ति पूजा का विचार आप लोगों को बर्बाद कर देगा. किसी व्यक्ति को देवता बना कर आप अपनी सुरक्षा और मुक्ति के लिए एक व्यक्ति में विश्वास करने लगते हैं जिस का नतीजा यह होता है कि आप को आश्रित होने और अपने कर्तव्य से विमुख होने की आदत पड़ जाती है. अगर आप इन विचारों का शिकार हो गए तो आप की हालत राष्ट्रीय जीवन धारा में लकड़ी के लठ्ठे से भी बुरी हो जाएगी. आप का संघर्ष बिलकुल बेकार हो जायेगा." मुझे लगता है कि मेरे अनुयायी मेरे कार्टून पर आपत्ति करके मुझे देवता बनाने पर तुले हुए हैं. मैं किसी का भी पैगम्बर नहीं बनना चाहता. मैं बुद्ध की तरह एक इंसान ही रहना चाहता हूँ. मैंने अपने जीवन में कितने लोगों की कितनी कड़वी आलोचना की थी और अपनी आलोचना सही भी थी. दुनिया में कोई भी व्यक्ति गलती से परे नहीं है. अतः आलोचना सार्वजनिक का एक आवश्यक अंग है.
मैं अपने अनुयायियों से यह भी अनुरोध करता हूँ कि वे मेरे जीवन दर्शन और मेरे जीवन मूल्यों को सही तरीके से जानें और उन्हें अपने आचरण में उतारें. उन्हें यह भी स्पष्ट तौर पर समझ लेना चाहिए कि उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तभी सुरक्षित रहेगी जब वे दूसरों की स्वतंत्रता की रक्षा करेंगे अन्यथा वे देश में बढ़ते फासीवाद और कट्टरपंथ को ही मज़बूत करेंगे. मेरे नाम पर राजनीति करने वाले नेताओं से भी मुझे कहना है कि वे दलितों का भावनात्मक शोषण, वोट बैंक और जाति की राजनीति के स्थान पर मुदों पर आधारित मूल परिवर्तन की राजनीति करें जिस से न केवल दलितों बल्कि सभी भारतवासियों का कल्याण होगा.
प्रो. पालशिकर ! अन्तः में मैं आप के साथ मेरे तथाकथित कुछ अनुयायियों दुआरा किये गए दुर्व्यवहार के लिए पुनः खेद प्रकट करता हूँ.
शनिवार, 12 मई 2012
उत्तर प्रदेश में दलितों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का मामला
उत्तर प्रदेश में दलितों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का मामला
एस. आर. दारापुरी
हाल में सुप्रीम कोर्ट दुआरा दिए गए निर्णय के अनुसार उत्तर प्रदेश में सरकारी नौकरियों में दलितों को पदोन्नति में मिलाने वाला आरक्षण समाप्त हो गया है. इस के पूर्व इसी मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मायावती सरकार दुआरा वर्ष २००७ में नौकरियों में आरक्षण और परिणामी ज्येष्टता के आदेश को रद्द कर दिया था जिस के खिलाफ उत्तर प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की थी. सुप्रीम कोर्ट ने इसे एम नागराज के मामले में दलितों के पिछड़ेपन के सम्बन्ध में आंकड़े एकत्र करके प्रस्तुत करने के आदेशों का अनुपालन न करने के कारण कर दिया था. यद्यपि उस ने पदोन्नति में आरक्षण को रद्द नहीं किया था परन्तु उसे देने से पहले पिछड़ेपन के सम्बन्ध में आंकड़े एकत्र करके प्रस्तुत करने का आदेश दिया था.
एम. नागराज का निर्णय वर्ष २००६ में ही आ गया था और मुलायम सिंह यादव जो उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री थे ने दलितों के लिए पदोन्नति में आरक्षण को लागु नहीं किया था. वर्ष २००७ में जब मायावती सत्ता में आई तो उन्होंने इस निर्णय के आदेशों का अनुपालन किये बिना ही पदोन्नति में आरक्षण लागु कर दिया जिसे इलाहाबाद हाई कोर्ट ने रद्द कर दिया. दरअसल इस मामले में आरक्षण लागु करने से पहिले या तो एम. नागराज के मामले में दलित जातियों के पिछड़ेपन के सम्बन्ध में आंकड़े एकत्र करके कोर्ट के सामने रखने चाहिए थे. या फिर एम. नागराज के मामले में निर्णय के खिलाफ पुनर निरीक्षण याचिका दायर करनी चाहिए थी कि दलितों के मामले में पिछड़ेपन का लागू किया गया टेस्ट उचित नहीं है परन्तु ऐसा नहीं किया गया. या फिर इस सम्बन्ध में संविधान संशोधन की मांग उठाई जाती जैसी कि अब उठाई गयी है. अगर मायावती इस मामले में वांछित कार्रवाही करने के बाद ही आरक्षण लागू करती तो उसे न तो कोई रद्द कर पाता और न ही आज की तरह आरक्षण पर कोई रोक ही लगती. यह मायावती सरकार दुआरा जल्दबाजी में की गयी कार्रवाही का ही परिणाम है कि अब पदोन्नति में आरक्षण समाप्त हो गया है जिसे बहाल करने में बहुत समय लगेगा.
इस मामले में यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि सुप्रीम कोर्ट अपने पूर्व के कई निर्णयों में स्पष्ट कर चुका है कि नियुक्ति में पदोन्नति भी निहित है और नियुक्ति में आरक्षण का अर्थ पदोन्नति में भी आरक्षण है. परन्तु इंदिरा साह्नी - १९९२ केस में पदोन्नति में आरक्षण पर प्रतिबन्ध लगा दिया था जिसे लेकर संविधान संशोधन करके संविधान की धारा 16 (4A ) तथा धारा 16 (4B) जोड़ी गयी जिससे पदोन्नति में आरक्षण तथा परिणामी ज्येष्टता का प्राविधान लागू कर दिया गया. यह प्राविधान केवल अनुसूचित/ अनुसूचित जाति के मामले में ही लागू होना था. इस का लाभ अन्य पिछड़ी जातियों को देय नहीं था. ऍम. नागराज के मामले में इसी संविधान संशोधन को चुनौती दी गयी जिस पर सुप्रीम कोर्ट की पॉँच जजों की बैंच ने अपने निर्णय में यह शर्त लगा दी कि यदि कोई राज्य अपने राज्य में अनुसूचित जातियों / जनजातियों को पदोन्नति में आरक्षण देना चाहता है तो उसे इस से पहले इन जातियों के पिछड़ेपन एवं उन के अपर्याप्त प्रतिनिधितव के संवंध में आंकड़े तथा इसके धारा ३३५ में कार्य कुशलता के अनुरूप होने के बारे में सूचनाएं प्रस्तुत करनी होंगी. परन्तु न तो मायावती सरकार ने और न ही राजस्थान एवं हिमाचल प्रदेश सरकार ने इस का अनुपालन किया जिस के फलस्वरूप हाई कोर्ट्स तथा अंतत सुप्रीम कोर्ट ने उनके पदोन्नति सम्बन्धी आदेशों को रद्द कर दिया.
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के कारण पूरे देश में पदोन्नति में आरक्षण पर रोक लग गयी है. अब या तो एम. नागराज के मामले में दिए गए निर्देशों का अनुपल किया जाये या फिर सुप्रीम कोर्ट में इस निर्णय के खिलाफ पुनर निरीक्षण याचिका दायर करके इन शर्तों को रद्द कराया जाये या फिर संविधान संशोधन किया जाये. यह उल्लेखनीय है कि संविधान की धारा 15(4) तथा 16(4) में केवल पिछड़ी जातियों पर सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़ेपन और सेवाओं में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व का टेस्ट लागू होता है अनुसूचित जातियों/ जन जातियों पर नहीं. संविधान में पिछड़ी जातियों को पिछड़ा वर्ग आयोग दुआरा उपरोक्त मापदंडों के आधार पर ही चिन्हित किया जाता है परन्तु अनुसूचित जातियां तो संविधान की धारा ३४१ व ३४२ के अंतर्गत और संविधान (अनुसूचित जातियां ) आदेश ,१९५० तथा संविधान (अनुसूचित जनजातियाँ) आदेश, १९५० के अनुसार चिन्हित हैं. अतः इन के मामले में पिछड़ेपन के टेस्ट को लागू करना संविधान सम्मत नहीं कहा जा सकता है. अतः इसे जल्दी से जल्दी सुप्रीम कोर्ट में पुनर निरीक्षण याचिका दुआरा अथवा संविधान संशोधन दुआरा समाप्त किया जाना चाहिए.
पदोन्नति में आरक्षण इस लिए भी ज़रूरी है कि अनुसूचित जातियों का उच्च पदों पर प्रतिनिधित्व अभी भी बहुत कम है. दलित वर्ग के अधिकतर कर्मचारी विभिन्न कारणों से नौकरी में देर से आते हैं. अतः वे सेवा काल में उन उच्च पदों पर नहीं पहुँच पाते हैं जहाँ पर सामान्य जाति के लोग पहुँच जाते हैं. इस के अतिरिक्त आरक्षण का मतलब सभी स्तरों पर प्रतिनिधित्व भी है. यह भी ज्ञातव्य है कि प्रशासन में उच्च पदों की महत्वपूरण भूमिका होती है. अतः इन पदों पर दलितों का प्रतिनिधितिव केवल पदोन्नति में आरक्षण दुआरा ही सम्भव है. अब अगर पदोन्नति के बाद उस पद की ज्येष्टता नहीं मिलेगी तो अल्गली पदोन्नति फिर बाधित हो जाएगी क्योकि इस के बिना सामान्य जाति का बाद में पदोन्नति पाने वाला व्यक्ति फिर जयेष्ट हो जायेगा. अतः दलितों के लिए पदोन्नति में आरक्षण और परिणामी ज्येष्टता का प्रावधान होना ज़रूरी है.
दलितों को यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि आरक्षण पर शुरू से ही चौतरफा हमले होते रहे हैं. एक तो किसी भी सरकार ने कोटा पूरा करने में ईमानदारी नहीं दिखाई है और दूसरे इस में अदालतों दुआरा अनेकों बाधाएं पैदा की जाती रही है. इस का दुष्परिणाम यह है कि १९५० से लेकर अब तक बड़ी मुश्किल से वर्ग तीन और वर्ग चार की नौकरियों में ही कोटा पूरा हो पाया है जो कि महत्वहीन पद होते है. वर्ग दो और वर्ग एक का कोटा अभी बहुत पिछड़ा हुआ है जबकि यह पद ही वास्तव में महत्वपूर्ण होते हैं जहाँ से प्रशासन में महतवपूर्ण भागीदारी हो सकती है. अतः उच्च पदों पर पहुँच कर भागीदारी करने हेतु पदोन्नति में आरक्षण का होना अति आवश्यक है जिस कि बहाली हेतु अदालत और राजनैतिक स्तर पर संघर्ष की ज़रूरत है. इसमें वे एक तो अपने स्तर सुप्रीम कोर्ट जा कर और दूसरे सपा सरकार पर उचित दबाव पैदा करके आवश्यक कार्रवाही करवा सकते हैं.
एस. आर. दारापुरी
हाल में सुप्रीम कोर्ट दुआरा दिए गए निर्णय के अनुसार उत्तर प्रदेश में सरकारी नौकरियों में दलितों को पदोन्नति में मिलाने वाला आरक्षण समाप्त हो गया है. इस के पूर्व इसी मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मायावती सरकार दुआरा वर्ष २००७ में नौकरियों में आरक्षण और परिणामी ज्येष्टता के आदेश को रद्द कर दिया था जिस के खिलाफ उत्तर प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की थी. सुप्रीम कोर्ट ने इसे एम नागराज के मामले में दलितों के पिछड़ेपन के सम्बन्ध में आंकड़े एकत्र करके प्रस्तुत करने के आदेशों का अनुपालन न करने के कारण कर दिया था. यद्यपि उस ने पदोन्नति में आरक्षण को रद्द नहीं किया था परन्तु उसे देने से पहले पिछड़ेपन के सम्बन्ध में आंकड़े एकत्र करके प्रस्तुत करने का आदेश दिया था.
एम. नागराज का निर्णय वर्ष २००६ में ही आ गया था और मुलायम सिंह यादव जो उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री थे ने दलितों के लिए पदोन्नति में आरक्षण को लागु नहीं किया था. वर्ष २००७ में जब मायावती सत्ता में आई तो उन्होंने इस निर्णय के आदेशों का अनुपालन किये बिना ही पदोन्नति में आरक्षण लागु कर दिया जिसे इलाहाबाद हाई कोर्ट ने रद्द कर दिया. दरअसल इस मामले में आरक्षण लागु करने से पहिले या तो एम. नागराज के मामले में दलित जातियों के पिछड़ेपन के सम्बन्ध में आंकड़े एकत्र करके कोर्ट के सामने रखने चाहिए थे. या फिर एम. नागराज के मामले में निर्णय के खिलाफ पुनर निरीक्षण याचिका दायर करनी चाहिए थी कि दलितों के मामले में पिछड़ेपन का लागू किया गया टेस्ट उचित नहीं है परन्तु ऐसा नहीं किया गया. या फिर इस सम्बन्ध में संविधान संशोधन की मांग उठाई जाती जैसी कि अब उठाई गयी है. अगर मायावती इस मामले में वांछित कार्रवाही करने के बाद ही आरक्षण लागू करती तो उसे न तो कोई रद्द कर पाता और न ही आज की तरह आरक्षण पर कोई रोक ही लगती. यह मायावती सरकार दुआरा जल्दबाजी में की गयी कार्रवाही का ही परिणाम है कि अब पदोन्नति में आरक्षण समाप्त हो गया है जिसे बहाल करने में बहुत समय लगेगा.
इस मामले में यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि सुप्रीम कोर्ट अपने पूर्व के कई निर्णयों में स्पष्ट कर चुका है कि नियुक्ति में पदोन्नति भी निहित है और नियुक्ति में आरक्षण का अर्थ पदोन्नति में भी आरक्षण है. परन्तु इंदिरा साह्नी - १९९२ केस में पदोन्नति में आरक्षण पर प्रतिबन्ध लगा दिया था जिसे लेकर संविधान संशोधन करके संविधान की धारा 16 (4A ) तथा धारा 16 (4B) जोड़ी गयी जिससे पदोन्नति में आरक्षण तथा परिणामी ज्येष्टता का प्राविधान लागू कर दिया गया. यह प्राविधान केवल अनुसूचित/ अनुसूचित जाति के मामले में ही लागू होना था. इस का लाभ अन्य पिछड़ी जातियों को देय नहीं था. ऍम. नागराज के मामले में इसी संविधान संशोधन को चुनौती दी गयी जिस पर सुप्रीम कोर्ट की पॉँच जजों की बैंच ने अपने निर्णय में यह शर्त लगा दी कि यदि कोई राज्य अपने राज्य में अनुसूचित जातियों / जनजातियों को पदोन्नति में आरक्षण देना चाहता है तो उसे इस से पहले इन जातियों के पिछड़ेपन एवं उन के अपर्याप्त प्रतिनिधितव के संवंध में आंकड़े तथा इसके धारा ३३५ में कार्य कुशलता के अनुरूप होने के बारे में सूचनाएं प्रस्तुत करनी होंगी. परन्तु न तो मायावती सरकार ने और न ही राजस्थान एवं हिमाचल प्रदेश सरकार ने इस का अनुपालन किया जिस के फलस्वरूप हाई कोर्ट्स तथा अंतत सुप्रीम कोर्ट ने उनके पदोन्नति सम्बन्धी आदेशों को रद्द कर दिया.
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के कारण पूरे देश में पदोन्नति में आरक्षण पर रोक लग गयी है. अब या तो एम. नागराज के मामले में दिए गए निर्देशों का अनुपल किया जाये या फिर सुप्रीम कोर्ट में इस निर्णय के खिलाफ पुनर निरीक्षण याचिका दायर करके इन शर्तों को रद्द कराया जाये या फिर संविधान संशोधन किया जाये. यह उल्लेखनीय है कि संविधान की धारा 15(4) तथा 16(4) में केवल पिछड़ी जातियों पर सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़ेपन और सेवाओं में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व का टेस्ट लागू होता है अनुसूचित जातियों/ जन जातियों पर नहीं. संविधान में पिछड़ी जातियों को पिछड़ा वर्ग आयोग दुआरा उपरोक्त मापदंडों के आधार पर ही चिन्हित किया जाता है परन्तु अनुसूचित जातियां तो संविधान की धारा ३४१ व ३४२ के अंतर्गत और संविधान (अनुसूचित जातियां ) आदेश ,१९५० तथा संविधान (अनुसूचित जनजातियाँ) आदेश, १९५० के अनुसार चिन्हित हैं. अतः इन के मामले में पिछड़ेपन के टेस्ट को लागू करना संविधान सम्मत नहीं कहा जा सकता है. अतः इसे जल्दी से जल्दी सुप्रीम कोर्ट में पुनर निरीक्षण याचिका दुआरा अथवा संविधान संशोधन दुआरा समाप्त किया जाना चाहिए.
पदोन्नति में आरक्षण इस लिए भी ज़रूरी है कि अनुसूचित जातियों का उच्च पदों पर प्रतिनिधित्व अभी भी बहुत कम है. दलित वर्ग के अधिकतर कर्मचारी विभिन्न कारणों से नौकरी में देर से आते हैं. अतः वे सेवा काल में उन उच्च पदों पर नहीं पहुँच पाते हैं जहाँ पर सामान्य जाति के लोग पहुँच जाते हैं. इस के अतिरिक्त आरक्षण का मतलब सभी स्तरों पर प्रतिनिधित्व भी है. यह भी ज्ञातव्य है कि प्रशासन में उच्च पदों की महत्वपूरण भूमिका होती है. अतः इन पदों पर दलितों का प्रतिनिधितिव केवल पदोन्नति में आरक्षण दुआरा ही सम्भव है. अब अगर पदोन्नति के बाद उस पद की ज्येष्टता नहीं मिलेगी तो अल्गली पदोन्नति फिर बाधित हो जाएगी क्योकि इस के बिना सामान्य जाति का बाद में पदोन्नति पाने वाला व्यक्ति फिर जयेष्ट हो जायेगा. अतः दलितों के लिए पदोन्नति में आरक्षण और परिणामी ज्येष्टता का प्रावधान होना ज़रूरी है.
दलितों को यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि आरक्षण पर शुरू से ही चौतरफा हमले होते रहे हैं. एक तो किसी भी सरकार ने कोटा पूरा करने में ईमानदारी नहीं दिखाई है और दूसरे इस में अदालतों दुआरा अनेकों बाधाएं पैदा की जाती रही है. इस का दुष्परिणाम यह है कि १९५० से लेकर अब तक बड़ी मुश्किल से वर्ग तीन और वर्ग चार की नौकरियों में ही कोटा पूरा हो पाया है जो कि महत्वहीन पद होते है. वर्ग दो और वर्ग एक का कोटा अभी बहुत पिछड़ा हुआ है जबकि यह पद ही वास्तव में महत्वपूर्ण होते हैं जहाँ से प्रशासन में महतवपूर्ण भागीदारी हो सकती है. अतः उच्च पदों पर पहुँच कर भागीदारी करने हेतु पदोन्नति में आरक्षण का होना अति आवश्यक है जिस कि बहाली हेतु अदालत और राजनैतिक स्तर पर संघर्ष की ज़रूरत है. इसमें वे एक तो अपने स्तर सुप्रीम कोर्ट जा कर और दूसरे सपा सरकार पर उचित दबाव पैदा करके आवश्यक कार्रवाही करवा सकते हैं.
डॉ. आंबेडकर के कार्टून पर राजनीति से उपजे खतरे
एस. आर. दारापुरी
कल लोक सभा और राज्य सभा में राष्ट्रीय शैक्षिक एवं अनुसन्धान परिषद ( एनसीआरटी) की किताब में डॉ. बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर पर छपे कार्टून को लेकर कुछ सदस्यों दुआरा इसे आपत्तिजनक कह कर हंगामा किया गया. दोनों सदनों में विपक्ष ने सरकार को आड़े हाथों लिया. इसमें मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल के इस्तीफे की मांग भी उठी. शोर शराबे और हंगामे के कारण पूर्वान्ह में सदन की कार्रवाही सुचारू रूप से नहीं चल सकी. बाद में सिब्बल के दोषियों के खिलाफ कार्रवाही का आश्वासन देने के साथ इसके लिए माफ़ी mangni पड़ी.
कक्षा ११ में पढाई जाने वाली राजनीति शास्त्र की पुस्तक में आंबेडकर के तथाकथित आपतिजनक कार्टून का मुद्दा सबसे पहले लोकसभा में वीसीके पार्टी के थिरुवा बलवान तोल ने उठाया और आपतिजनक कार्टून की प्रति भी सदन में दिखाई. उनके समर्थन में भाजपा,सपा, बसपा, और अन्य दलों के सदस्यों ने भी शोर शराबा किया. वे मानव संसाधन मंत्री का इस्तीफा मांग रहे थे. राज्य सभा में प्रश्न काल के दौरान जब सिब्बल एक प्रशन का जवाब देने के लिए खड़े हुए तो बसपा के ब्रजेश पाठक ने कार्टून की प्रति दिखाते हुए इस मुद्दे को उठा दिया. इस पर अन्य सदस्य भी उनसे सफाई मांगने लगे.
सरकार की तरफ से कपिल सिब्बल ने दोनों सदनों में सफाई दी और इस गलती के लिए माफी मांगी. इस पर बसपा प्रमुख मायावती ने कहा कि वह सरकार की सफाई से संतुष्ट नहीं है. सरकार बताये कि यह कृत्य करने वालों पर क्या कार्रवाही की गयी, यह अपराधिक कृत्य है. मायावती ने इसे लोकतंत्र का अपमान कहा. बाद में संसद भवन परिसर में लोजपा प्रमुख राम विलास पासवान ने भी कहा, " दोषियों का निलंबन ही नहीं उन पर एससी एसटी एक्ट के तहत मुकदमा चलाना चाहिए. उन्होंने ने तो एनसीआरटी को ही बंद करने की मांग भी कर डाली.
दोनों सदनों में उपरोक्त हंगामे के फलस्वरूप सरकार ने एनसीआरटी की उपरोक्त पुस्तक से विवादित कार्टून को निकालने की घोषणा की जिस पर एनसीआरटी की पुस्तक सलाहकार समिति के दो सदस्यों योगेन्द्र यादव और सुहास पल्शिकर ने समिति से इस्तीफा दे दिया. इस पर योगेन्द्र यादव ने कहा , "लोक सभा में हुई बहस पूरी तरह से सूचित नहीं थी . हम लोग पुस्तक निर्माता समिति के मुख्य सलाहकार थे. इस लिए हम लोगों ने इस्तीफा देना ही उचित समझा. मैं चाहता था कि सांसद लोग पुस्तक या जिस पृष्ट पर कार्टून छ्पा था को पढ़ लेते."
आंबेडकर नेहरु कार्टून विवाद पर राजनीतिक विश्लेषकों और समाज विज्ञानियों में विरोधी प्रतिक्रया है. कुछ दलित बुद्धिजीविओं का कहना है कि कार्टून डॉ. आंबेडकर के लिए अपमानजनक है. दूसरों का विशवास है कि यह विवाद अनावश्यक है. एक टिप्पणीकार के अनुसार इस में चुनाव तंत्र, जिस में वोट की राजनीति और प्राथमिकतायें ही निर्णय लेने की बाध्यताएं होती हैं, की बू आती है.
समाज विज्ञानी आशीष नंदी ने कहा, " उक्त विवाद से प्रकट होता है कि यद्यपि लोक्तंत्रिकर्ण हुआ है परन्तु समाज में लोकतान्त्रिक मूल्यों का समावेश नहीं हुआ है. लोकतंत्र केवल चुनाव तंत्र बन कर रह गया है." एक अन्य समाज विज्ञानी शिव विशाव्नाथान ने कहा कि अगर इसे गहराई से देखा जाए तो यह विवाद नेहरु और अम्बेडकर दोनों के लिए अनुचित है. " शंकर एक सम्मानित कार्टूनिस्ट के रूप में राजनीति के व्यंग को समझते थे. कार्टून इस बात की ताईद करता है कि डॉ. आंबेडकर संविधान के निर्माता और खेवट थे यद्यपि नेहरु चिंतित दिखाई पड़ते हैं . इस में किसी के लिए कुछ भी अपमानजनक नहीं है. डॉ. आंबेडकर सबसे पहले इस कार्टून का व्यंग और समानुभूति पहचान लेते." कुछ लोगों का यह भी कहना है कि यह कार्टून संभवतया १९४९ में पहली वार छ्पा था जब डॉ. आंबेडकर जीवित थे परन्तु उन्होंने तो इस पर कोई आपत्ति नहीं की थी तो फिर अब इस पर आपत्ति क्यों?
आइये अब इस कार्टून पर चर्चा की जाए. उक्त कार्टून प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट केशव शंकर पिल्लै दुआरा बनाया गया था. इस में संविधान निर्माण की गति पर व्यंग किया गया है. इस में डॉ. आंबेडकर संविधान रुपी घोंघे प़र चाबुक लेकर उसे आगे बढ़ाते हुए दिखाई देते है. उनके पीछे नेहरु भी चाबुक लेकर घोंघे को आगे बढ़ाने की मुद्रा में दिखाए गए हैं. कार्टून में जनता इसे देखते हुए दिखाई गई है. इस कार्टून के माध्यम से छात्रों से यह पूछा गया है कि संविधान निर्माण में इतना समय क्यों लगा? इस कार्टून के बगल में संविधान निर्माण की प्रक्रिया का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है. अब अगर इसे बिना किसी पूर्वाग्रह के देखा जाए तो इस में कुछ भी आपत्तिजनक दिखाई नहीं देता है. परन्तु फिर भी इस पर कुछ अति उत्साही व्यक्तियों खास करके कुछ दलित राजनेताओं दुआरा यह कह क़र कि यह डॉ. आंबेडकर के लिए अपमानजनक है, बवाल खड़ा किया. अब यह चुनाव तंत्र का गणित नहीं तो और क्या है? इस में कुछ लोगों ने यह दिखाने कि कोशिश कि है कि वे डॉ. आंबेडकर और दलितों के बहुत बड़े हितैषी हैं. अब अगर इस पूरे हंगामे के पीछे की राजनीति और इस से उपजे खतरों को देखा जाए तो यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहुत बड़ी चोट है. इस से हमारे समाज में पहले से व्याप्त फासीवाद और कट्टरपंथ को और ताकत मिली है. हम जानते हैं कि इस से पहले किस प्रकार हिन्दू और मुस्लिम कट्टरपंथी शिवाजी पर पुस्तक और सलमान रुश्दी की पुस्तक प़र बवाल खड़ा कर उन्हें जब्त करवा चुके हैं. इसी प्रकार विभिन्न अवसरों पर सांस्कृतिक पुलिस लोगों पर कहर ढाती रही है. आज हालत यह है कि इस बढ़ते फासीवादी और कट्टरपंथी रुझान के कारण लोग सही बात कहने से भी डरने लगे हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दिन बदिन ख़तम होती जा रही है जो कि लोकतंत्र की बुनियाद है.
यदि इतिहास को देखा जाये तो यह पाया जाता है कि दलित बोलने की स्वतंत्रता से सबसे अधिक वंचित रहे हैं. अब तक वे चुप्पी का सब से बड़ा शिकार रहे हैं. अतः उनके लिए इस स्वतंत्रता को बनाये रखना सब से अधिक महत्वपूर्ण काम है. अगर हाल में वाराणसी में बौद्ध पूर्णिमा पर घटी घटना को देखा जाए तो इस से दलितों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए आसन्न खतरों का आभास होता है. इस वर्ष ६ मई को वाराणसी में कचहरी स्थित डॉ. अम्बेद्कार की प्रतिमा पर बौद्ध जयंती का आयोजन किया गया था. वहां पर आयोजकों ने बुद्ध के साथ डॉ. आंबेडकर और पेरियार के चित्र भी लगाये थे. इन में से डॉ. आंबेडकर के चित्र के नीचे "हम हिन्दू नहीं हैं" और पेरियार के चित्र के नीचे " हिन्दू देवी देवताओं में विशवास मत करो. " लिखा था. इस को देखने से आप को कुछ भी आपत्तिजनक दिखाई नहीं देगा परन्तु इस पर भी हिन्दू वाहिनी के कुछ लोगों दुआरा आपत्ति की गयी और इस की शिकायत जिला प्रशासन से की गयी. इस पर जिला प्रशासन ने आयोजकों के विरोध को नज़र अंदाज़ करते हुए वहां से उन दोनों चित्रों को हटवा दिया और तभी वहां पर बौद्ध जयंती का कार्यक्रम संपन्न हो सका. यद्यपि इस घटना की थोड़ी चर्चा कुछ स्थानीय समाचार पत्रों में हुयी परन्तु विरोध करने वाले अपने मकसद में सफल हो गए. इस छोटी सी घटना से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि दलितों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कितना बड़ा खतरा है. अतः इस अधिकार को बचाना न केवल दलितों बल्कि सभी के लिए बहुत महत्वपूर्ण है.
हम लोग इस से भी अवगत हैं कि महाराष्ट्र में कुछ वर्ष पूर्व किस प्रकार बाबा साहेब की पुस्तक "रिडल्स इन हिन्दुइज्म" को लेकर आपत्तियां की गयी थीं और यह पुस्तक तभी बच सकी थी जब इस के समर्थन में बम्बई में दलितों दुआरा एक बहुत बड़ा प्रदर्शन आयोजित किया गया. इस समय बाबा साहेब के कार्टून को लेकर जो बवाल किया गया है उससे न तो बाबा साहेब का ही सम्मान बढ़ा है न ही दलितों का. इस के उल्ट दलितों ने जाने अनजाने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नुक्सान ही पहुँचाया है और फासीवादी और कट्टरपंथी ताकतों को ही मज़बूत किया है. अब अगर कल को बाबा साहेब के हिन्दू धर्म के विरुद्ध और बौद्ध धर्म के पक्ष में विचारों को लेकर हिन्दुत्ववादियों दुआरा आपत्ति करके पाठ्य पुस्तकों में से इस के निकाले जाने की मांग शुरू हो जाये तो दलितों के पास इस का क्या जवाब होगा. यदि कट्टरपंथी बाबा साहेब की कुछ पुस्तकों को आपतिजनक कह कर ज़ब्त करने की मांग करने लगें तो दलित इस का विरोध किस आधार पर कर पाएंगे. अतः मेरे विचार में बाबा साहेब के कार्टून प़र अनावश्यक आपत्ति उठाकर उसे पुस्तक में से निकलवाने से दलितों का कोई भला नहीं हुआ है बल्कि इस से तानाशाही और कट्टरपंथी ताकतें ही मज़बूत हुई हैं.
डॉ. आंबेडकर अभिवयक्ति की स्वतंत्रता के बहुत बड़े समर्थक थे. एक बहस के दौरान बाबा साहेब ने वाल्टेयर को उधृत करते हुए कहा था, "मैं आप से सहमत न होते हुए भी आप के ऐसा कहने के अधिकार की आखरी साँस तक रक्षा करूँगा." मुझे विश्वास है कि अगार आज बाबा साहेब जीवित होते तो वे अपने कार्टून के मामले में कुछ दलित नेताओं दुआरा राजनीति करके अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता की की गई क्षति तथा फासीवादी और कट्टरपंथी ताकतों को मज़बूत करने की दिशा में की गयी कार्रवाई को कतई पसंद नहीं करते.
एस. आर. दारापुरी
कल लोक सभा और राज्य सभा में राष्ट्रीय शैक्षिक एवं अनुसन्धान परिषद ( एनसीआरटी) की किताब में डॉ. बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर पर छपे कार्टून को लेकर कुछ सदस्यों दुआरा इसे आपत्तिजनक कह कर हंगामा किया गया. दोनों सदनों में विपक्ष ने सरकार को आड़े हाथों लिया. इसमें मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल के इस्तीफे की मांग भी उठी. शोर शराबे और हंगामे के कारण पूर्वान्ह में सदन की कार्रवाही सुचारू रूप से नहीं चल सकी. बाद में सिब्बल के दोषियों के खिलाफ कार्रवाही का आश्वासन देने के साथ इसके लिए माफ़ी mangni पड़ी.
कक्षा ११ में पढाई जाने वाली राजनीति शास्त्र की पुस्तक में आंबेडकर के तथाकथित आपतिजनक कार्टून का मुद्दा सबसे पहले लोकसभा में वीसीके पार्टी के थिरुवा बलवान तोल ने उठाया और आपतिजनक कार्टून की प्रति भी सदन में दिखाई. उनके समर्थन में भाजपा,सपा, बसपा, और अन्य दलों के सदस्यों ने भी शोर शराबा किया. वे मानव संसाधन मंत्री का इस्तीफा मांग रहे थे. राज्य सभा में प्रश्न काल के दौरान जब सिब्बल एक प्रशन का जवाब देने के लिए खड़े हुए तो बसपा के ब्रजेश पाठक ने कार्टून की प्रति दिखाते हुए इस मुद्दे को उठा दिया. इस पर अन्य सदस्य भी उनसे सफाई मांगने लगे.
सरकार की तरफ से कपिल सिब्बल ने दोनों सदनों में सफाई दी और इस गलती के लिए माफी मांगी. इस पर बसपा प्रमुख मायावती ने कहा कि वह सरकार की सफाई से संतुष्ट नहीं है. सरकार बताये कि यह कृत्य करने वालों पर क्या कार्रवाही की गयी, यह अपराधिक कृत्य है. मायावती ने इसे लोकतंत्र का अपमान कहा. बाद में संसद भवन परिसर में लोजपा प्रमुख राम विलास पासवान ने भी कहा, " दोषियों का निलंबन ही नहीं उन पर एससी एसटी एक्ट के तहत मुकदमा चलाना चाहिए. उन्होंने ने तो एनसीआरटी को ही बंद करने की मांग भी कर डाली.
दोनों सदनों में उपरोक्त हंगामे के फलस्वरूप सरकार ने एनसीआरटी की उपरोक्त पुस्तक से विवादित कार्टून को निकालने की घोषणा की जिस पर एनसीआरटी की पुस्तक सलाहकार समिति के दो सदस्यों योगेन्द्र यादव और सुहास पल्शिकर ने समिति से इस्तीफा दे दिया. इस पर योगेन्द्र यादव ने कहा , "लोक सभा में हुई बहस पूरी तरह से सूचित नहीं थी . हम लोग पुस्तक निर्माता समिति के मुख्य सलाहकार थे. इस लिए हम लोगों ने इस्तीफा देना ही उचित समझा. मैं चाहता था कि सांसद लोग पुस्तक या जिस पृष्ट पर कार्टून छ्पा था को पढ़ लेते."
आंबेडकर नेहरु कार्टून विवाद पर राजनीतिक विश्लेषकों और समाज विज्ञानियों में विरोधी प्रतिक्रया है. कुछ दलित बुद्धिजीविओं का कहना है कि कार्टून डॉ. आंबेडकर के लिए अपमानजनक है. दूसरों का विशवास है कि यह विवाद अनावश्यक है. एक टिप्पणीकार के अनुसार इस में चुनाव तंत्र, जिस में वोट की राजनीति और प्राथमिकतायें ही निर्णय लेने की बाध्यताएं होती हैं, की बू आती है.
समाज विज्ञानी आशीष नंदी ने कहा, " उक्त विवाद से प्रकट होता है कि यद्यपि लोक्तंत्रिकर्ण हुआ है परन्तु समाज में लोकतान्त्रिक मूल्यों का समावेश नहीं हुआ है. लोकतंत्र केवल चुनाव तंत्र बन कर रह गया है." एक अन्य समाज विज्ञानी शिव विशाव्नाथान ने कहा कि अगर इसे गहराई से देखा जाए तो यह विवाद नेहरु और अम्बेडकर दोनों के लिए अनुचित है. " शंकर एक सम्मानित कार्टूनिस्ट के रूप में राजनीति के व्यंग को समझते थे. कार्टून इस बात की ताईद करता है कि डॉ. आंबेडकर संविधान के निर्माता और खेवट थे यद्यपि नेहरु चिंतित दिखाई पड़ते हैं . इस में किसी के लिए कुछ भी अपमानजनक नहीं है. डॉ. आंबेडकर सबसे पहले इस कार्टून का व्यंग और समानुभूति पहचान लेते." कुछ लोगों का यह भी कहना है कि यह कार्टून संभवतया १९४९ में पहली वार छ्पा था जब डॉ. आंबेडकर जीवित थे परन्तु उन्होंने तो इस पर कोई आपत्ति नहीं की थी तो फिर अब इस पर आपत्ति क्यों?
आइये अब इस कार्टून पर चर्चा की जाए. उक्त कार्टून प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट केशव शंकर पिल्लै दुआरा बनाया गया था. इस में संविधान निर्माण की गति पर व्यंग किया गया है. इस में डॉ. आंबेडकर संविधान रुपी घोंघे प़र चाबुक लेकर उसे आगे बढ़ाते हुए दिखाई देते है. उनके पीछे नेहरु भी चाबुक लेकर घोंघे को आगे बढ़ाने की मुद्रा में दिखाए गए हैं. कार्टून में जनता इसे देखते हुए दिखाई गई है. इस कार्टून के माध्यम से छात्रों से यह पूछा गया है कि संविधान निर्माण में इतना समय क्यों लगा? इस कार्टून के बगल में संविधान निर्माण की प्रक्रिया का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है. अब अगर इसे बिना किसी पूर्वाग्रह के देखा जाए तो इस में कुछ भी आपत्तिजनक दिखाई नहीं देता है. परन्तु फिर भी इस पर कुछ अति उत्साही व्यक्तियों खास करके कुछ दलित राजनेताओं दुआरा यह कह क़र कि यह डॉ. आंबेडकर के लिए अपमानजनक है, बवाल खड़ा किया. अब यह चुनाव तंत्र का गणित नहीं तो और क्या है? इस में कुछ लोगों ने यह दिखाने कि कोशिश कि है कि वे डॉ. आंबेडकर और दलितों के बहुत बड़े हितैषी हैं. अब अगर इस पूरे हंगामे के पीछे की राजनीति और इस से उपजे खतरों को देखा जाए तो यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहुत बड़ी चोट है. इस से हमारे समाज में पहले से व्याप्त फासीवाद और कट्टरपंथ को और ताकत मिली है. हम जानते हैं कि इस से पहले किस प्रकार हिन्दू और मुस्लिम कट्टरपंथी शिवाजी पर पुस्तक और सलमान रुश्दी की पुस्तक प़र बवाल खड़ा कर उन्हें जब्त करवा चुके हैं. इसी प्रकार विभिन्न अवसरों पर सांस्कृतिक पुलिस लोगों पर कहर ढाती रही है. आज हालत यह है कि इस बढ़ते फासीवादी और कट्टरपंथी रुझान के कारण लोग सही बात कहने से भी डरने लगे हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दिन बदिन ख़तम होती जा रही है जो कि लोकतंत्र की बुनियाद है.
यदि इतिहास को देखा जाये तो यह पाया जाता है कि दलित बोलने की स्वतंत्रता से सबसे अधिक वंचित रहे हैं. अब तक वे चुप्पी का सब से बड़ा शिकार रहे हैं. अतः उनके लिए इस स्वतंत्रता को बनाये रखना सब से अधिक महत्वपूर्ण काम है. अगर हाल में वाराणसी में बौद्ध पूर्णिमा पर घटी घटना को देखा जाए तो इस से दलितों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए आसन्न खतरों का आभास होता है. इस वर्ष ६ मई को वाराणसी में कचहरी स्थित डॉ. अम्बेद्कार की प्रतिमा पर बौद्ध जयंती का आयोजन किया गया था. वहां पर आयोजकों ने बुद्ध के साथ डॉ. आंबेडकर और पेरियार के चित्र भी लगाये थे. इन में से डॉ. आंबेडकर के चित्र के नीचे "हम हिन्दू नहीं हैं" और पेरियार के चित्र के नीचे " हिन्दू देवी देवताओं में विशवास मत करो. " लिखा था. इस को देखने से आप को कुछ भी आपत्तिजनक दिखाई नहीं देगा परन्तु इस पर भी हिन्दू वाहिनी के कुछ लोगों दुआरा आपत्ति की गयी और इस की शिकायत जिला प्रशासन से की गयी. इस पर जिला प्रशासन ने आयोजकों के विरोध को नज़र अंदाज़ करते हुए वहां से उन दोनों चित्रों को हटवा दिया और तभी वहां पर बौद्ध जयंती का कार्यक्रम संपन्न हो सका. यद्यपि इस घटना की थोड़ी चर्चा कुछ स्थानीय समाचार पत्रों में हुयी परन्तु विरोध करने वाले अपने मकसद में सफल हो गए. इस छोटी सी घटना से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि दलितों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कितना बड़ा खतरा है. अतः इस अधिकार को बचाना न केवल दलितों बल्कि सभी के लिए बहुत महत्वपूर्ण है.
हम लोग इस से भी अवगत हैं कि महाराष्ट्र में कुछ वर्ष पूर्व किस प्रकार बाबा साहेब की पुस्तक "रिडल्स इन हिन्दुइज्म" को लेकर आपत्तियां की गयी थीं और यह पुस्तक तभी बच सकी थी जब इस के समर्थन में बम्बई में दलितों दुआरा एक बहुत बड़ा प्रदर्शन आयोजित किया गया. इस समय बाबा साहेब के कार्टून को लेकर जो बवाल किया गया है उससे न तो बाबा साहेब का ही सम्मान बढ़ा है न ही दलितों का. इस के उल्ट दलितों ने जाने अनजाने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नुक्सान ही पहुँचाया है और फासीवादी और कट्टरपंथी ताकतों को ही मज़बूत किया है. अब अगर कल को बाबा साहेब के हिन्दू धर्म के विरुद्ध और बौद्ध धर्म के पक्ष में विचारों को लेकर हिन्दुत्ववादियों दुआरा आपत्ति करके पाठ्य पुस्तकों में से इस के निकाले जाने की मांग शुरू हो जाये तो दलितों के पास इस का क्या जवाब होगा. यदि कट्टरपंथी बाबा साहेब की कुछ पुस्तकों को आपतिजनक कह कर ज़ब्त करने की मांग करने लगें तो दलित इस का विरोध किस आधार पर कर पाएंगे. अतः मेरे विचार में बाबा साहेब के कार्टून प़र अनावश्यक आपत्ति उठाकर उसे पुस्तक में से निकलवाने से दलितों का कोई भला नहीं हुआ है बल्कि इस से तानाशाही और कट्टरपंथी ताकतें ही मज़बूत हुई हैं.
डॉ. आंबेडकर अभिवयक्ति की स्वतंत्रता के बहुत बड़े समर्थक थे. एक बहस के दौरान बाबा साहेब ने वाल्टेयर को उधृत करते हुए कहा था, "मैं आप से सहमत न होते हुए भी आप के ऐसा कहने के अधिकार की आखरी साँस तक रक्षा करूँगा." मुझे विश्वास है कि अगार आज बाबा साहेब जीवित होते तो वे अपने कार्टून के मामले में कुछ दलित नेताओं दुआरा राजनीति करके अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता की की गई क्षति तथा फासीवादी और कट्टरपंथी ताकतों को मज़बूत करने की दिशा में की गयी कार्रवाई को कतई पसंद नहीं करते.
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