शनिवार, 21 जून 2025

आज भारत में दलितों की स्थिति क्या है?

 

आज भारत में दलितों की स्थिति  क्या है?

एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट 

आज भारत में दलितों की स्थिति लगातार चुनौतियों के साथ जुड़ी हुई प्रगति की कहानी है। दलित, जिन्हें ऐतिहासिक रूप से "अछूत" के रूप में जाना जाता है और आधिकारिक तौर पर अनुसूचित जाति (एससी) के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, भारत की आबादी का लगभग 16.6% हिस्सा बनाते हैं - 2011 की जनगणना के अनुसार लगभग 200 मिलियन लोग। संवैधानिक सुरक्षा उपायों, सकारात्मक कार्रवाई और सामाजिक-आर्थिक लाभों के बावजूद, वे जाति व्यवस्था की स्थायी विरासत में निहित प्रणालीगत भेदभाव, हिंसा और असमानता का सामना करना जारी रखते हैं। वर्तमान तिथि 07 अप्रैल, 2025 है, जो हमें हाल के रुझानों और विकासों से आकर्षित करती है।

संवैधानिक और कानूनी ढांचा

भारत के संविधान ने अनुच्छेद 17 के तहत अस्पृश्यता को समाप्त कर दिया और भेदभाव के खिलाफ सुरक्षा प्रदान की (अनुच्छेद 15) जबकि शिक्षा, रोजगार और राजनीति में आरक्षण के माध्यम से सकारात्मक कार्रवाई को अनिवार्य किया (अनुच्छेद 15(4) और 16(4))। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (2015 में संशोधित) का उद्देश्य जाति-आधारित हिंसा और भेदभाव को रोकना है, जिसमें अपराधियों के लिए कठोर दंड का प्रावधान है। इन उपायों ने महत्वपूर्ण रूप से ऊपर की ओर गतिशीलता को सक्षम किया है: राम नाथ कोविंद (राष्ट्रपति, 2017-2022) और जगजीवन राम (पूर्व उप प्रधान मंत्री) जैसे दलित राजनीतिक सफलता के उदाहरण हैं, जबकि आरक्षण नीतियों ने साक्षरता दर (1961 में 21.4% से 2011 में 66.1% तक) और सरकारी नौकरियों तक पहुँच को बढ़ावा दिया है।

सामाजिक-आर्थिक प्रगति

आर्थिक रूप से, दलितों ने प्रगति की है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5, 2019-2021) शिशु मृत्यु दर और स्वच्छता तक पहुँच जैसे स्वास्थ्य संकेतकों में सुधार दिखाता है, हालाँकि उच्च जातियों के साथ अंतर बना हुआ है। भारतीय दलित अध्ययन संस्थान द्वारा 2023 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि दलित उद्यमिता में वृद्धि हुई है, तमिलनाडु और पंजाब जैसे राज्यों में 10% से अधिक एमएसएमई (सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम) अब एससी व्यक्तियों के स्वामित्व में हैं, जिन्हें स्टैंड-अप इंडिया पहल जैसी योजनाओं से सहायता मिली है। शहरीकरण ने कुछ संदर्भों में जातिगत बाधाओं को भी कमज़ोर किया है, जिसमें दलितों की संख्या सफ़ेदपोश व्यवसायों में तेज़ी से दिखाई दे रही है।

फिर भी, असमानताएँ अभी भी स्पष्ट हैं। 2021 के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण ने संकेत दिया कि एससी समान काम के लिए उच्च जातियों की तुलना में लगभग 20-30% कम कमाते हैं, और उनकी भूमि का स्वामित्व अनुपातहीन रूप से कम है (एक महत्वपूर्ण ग्रामीण आबादी होने के बावजूद कुल कृषि भूमि का 10% से भी कम)। दलितों में गरीबी दर अधिक है - राष्ट्रीय औसत 21% (विश्व बैंक, 2022) की तुलना में लगभग 30% - और ग्रामीण क्षेत्रों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच कम है।

हिंसा और भेदभाव

दलितों के खिलाफ़ हिंसा एक गंभीर चिंता का विषय बनी हुई है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) ने 2022 में अनुसूचित जातियों के खिलाफ 50,291 अपराधों की सूचना दी, जो 2021 से 1.2% अधिक है, जिसमें हत्या, बलात्कार और हमले शामिल हैं। हाई-प्रोफाइल मामले - जैसे कि 2020 में उत्तर प्रदेश में एक दलित लड़की के साथ हाथरस में सामूहिक बलात्कार और हत्या, या 2024 में तमिलनाडु में एक दलित व्यक्ति की उच्च जाति की महिला से शादी करने पर हत्या - जाति के वर्चस्व को स्थापित करने के लिए अभी भी की जाने वाली क्रूरता को उजागर करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में, "सम्मान अपराध" और सामाजिक बहिष्कार जारी है, जो अक्सर अंतर-जातीय संबंधों या कथित उल्लंघनों से शुरू होता है।

शहरी क्षेत्रों में भेदभाव सूक्ष्म लेकिन व्यापक है। ऑक्सफैम इंडिया द्वारा 2023 के सर्वेक्षण जैसे अध्ययनों में पाया गया कि 27% दलितों को कार्यस्थल पर पक्षपात का सामना करना पड़ा, और दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में किराए पर भेदभाव आम बात है, जहाँ मकान मालिक दलित किराएदारों को मना कर देते हैं। 2024 की सफाई कर्मचारी आंदोलन रिपोर्ट के अनुसार, मैनुअल स्कैवेंजिंग-एक अमानवीय प्रथा जिस पर आधिकारिक तौर पर प्रतिबंध लगा दिया गया है- 50,000 से अधिक लोगों को रोजगार दे रही है, जिनमें से अधिकांश दलित हैं, जबकि सरकार इसके उन्मूलन का दावा करती है।

राजनीतिक और सामाजिक लामबंदी

राजनीतिक रूप से, दलित एक दुर्जेय शक्ति हैं। मायावती के नेतृत्व वाली बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) और भीम आर्मी के चंद्रशेखर आज़ाद जैसे नेता उनकी आवाज़ को बुलंद करते हैं, हालाँकि 2007 में उत्तर प्रदेश में जीत के बाद से बीएसपी का प्रभाव कम हो गया है। 2024 के लोकसभा चुनावों में 84 आरक्षित एससी निर्वाचन क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया गया, फिर भी आलोचकों का तर्क है कि मुख्यधारा की पार्टियाँ अक्सर संरचनात्मक मुद्दों को संबोधित किए बिना दलित नेताओं को प्रतीकात्मक रूप से पेश करती हैं।

सामाजिक रूप से, दलितों का दावा बढ़ रहा है। भारत के संविधान के निर्माता और दलित प्रतीक बी.आर. अंबेडकर से प्रेरित आंदोलन साहित्य, विरोध और डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म के माध्यम से सक्रियता को बढ़ावा देते हैं। एक्स पर, हिंसा की घटनाओं के दौरान #DalitLivesMatter जैसे हैशटैग ट्रेंड करते हैं, जो वैश्विक एकजुटता और स्थानीय आक्रोश को दर्शाता है। हालाँकि, यह दावा कभी-कभी उच्च-जाति समूहों से प्रतिक्रिया को भड़काता है, जैसा कि अंबेडकर की मूर्तियों या मंदिर प्रवेश विवादों पर झड़पों में देखा गया है।

क्षेत्रीय विविधताएँ

दलितों का अनुभव व्यापक रूप से भिन्न है। तमिलनाडु और महाराष्ट्र में, मजबूत जाति-विरोधी आंदोलनों (जैसे, द्रविड़ राजनीति और अंबेडकरवादी बौद्ध धर्म) ने सापेक्ष सशक्तिकरण को बढ़ावा दिया है, हालाँकि अत्याचार जारी हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश में, सामंती संरचनाएँ जातिगत उत्पीड़न को बनाए रखती हैं, जहाँ दलित अक्सर बंधुआ मज़दूरी में फँस जाते हैं या यादव या राजपूत जैसी प्रमुख जातियों द्वारा निशाना बनाए जाते हैं। दशकों से कम्युनिस्टों के नेतृत्व वाले सुधारों की बदौलत केरल दलितों के लिए उच्च सामाजिक संकेतकों के साथ अलग खड़ा है।

वर्तमान चुनौतियाँ और सरकारी प्रतिक्रिया

2014 से भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने कौशल भारत और स्वच्छ भारत जैसी योजनाओं पर ज़ोर दिया है, जिसमें दलितों सहित हाशिए के समूहों के लिए लाभ का दावा किया गया है। मार्च 2025 में, केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने प्रतिबद्धता के प्रमाण के रूप में अनुसूचित जाति कल्याण के लिए बढ़े हुए बजटीय आवंटन (2024-25 में ₹1.59 लाख करोड़) का हवाला दिया। फिर भी, दलित मानवाधिकारों पर राष्ट्रीय अभियान (NCDHR) सहित आलोचकों का तर्क है कि कार्यान्वयन कमज़ोर है, और हिंदू राष्ट्रवाद के उदय ने उच्च-जाति के दंड से मुक्ति को बढ़ावा दिया है। 2018 में एससी/एसटी एक्ट को कमजोर करना (बाद में विरोध के कारण इसे वापस ले लिया गया) और अत्याचार के मामलों में सजा में देरी (एनसीआरबी 2022 के अनुसार, सजा दर 30% से कम) अविश्वास को बढ़ावा देती है।

निष्कर्ष

आज भारत में दलितों की दुर्दशा प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच लचीलापन दिखाने वाली है। कानूनी सुरक्षा और सकारात्मक कार्रवाई ने प्रगति को बढ़ावा दिया है, जिससे लाखों लोग शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक शक्ति में आ गए हैं। फिर भी, प्रणालीगत हिंसा, आर्थिक असमानता और रोज़मर्रा के भेदभाव से जाति व्यवस्था की अड़ियल पकड़ का पता चलता है, खासकर ग्रामीण और उत्तरी राज्यों में। जबकि दलित अब इतिहास के बेआवाज़ (मूक) बहिष्कृत लोग नहीं हैं, उनकी सुरक्षा और गरिमा क्षेत्र, कानूनों के प्रवर्तन और समाज की जातिवादी अंतर्धाराओं का सामना करने की इच्छा पर निर्भर है। प्रक्षेपवक्र ऊपर की ओर है लेकिन असमान है, पूर्ण समानता अभी भी एक दूर का लक्ष्य है।

साभार: grok.com

बुधवार, 18 जून 2025

विद्रोही दलित अय्यंकाली: जिन्होंने केरल के सवर्णों के जातीय अभिमान को अपनी बैलगाड़ी के पहिए तले रौंद डाला

 

विद्रोही दलित अय्यंकाली: जिन्होंने केरल के सवर्णों के जातीय अभिमान को अपनी बैलगाड़ी के पहिए तले रौंद डाला

-सिद्धार्थ रामू 


परिनिर्वाण दिवस ( 18 जून) पर सादर नमन के साथ 

केरल के पहले दलित विद्रोही अय्यंकाली को याद करते हुए मलयाली कवि पी. जी. बिनॉय लिखते हैं-

तुम्हीं ने जलाया था, प्रथम ज्ञानदीप

बैलगाड़ी पर सवार हो

गुजरते हुए प्रतिबंधित रास्तों पर

अपनी देह की यंत्रशक्ति से

पलट दिया था, कालचक्र को।

आधुनिक युग ब्राह्मणवाद के खिलाफ दलितों के विद्रोह का भी युग है। इस युग में देश के अलग-अलग कोनों में दलित विद्रोह की लहर पर लहर उठती रही और आज भी उसका सिलसिला किसी न किसी रूप में चल रहा है, क्योंकि सामाजिक समानता के जिस स्वप्न के साथ ये विद्रोह शुरू हुए थे, वह अभी पूरी तरह हासिल नहीं हुआ है। दक्षिण भारत और पश्चिमोत्तर भारत में यह विद्रोह ज्यादा व्यापक और प्रभावी रहा है।

तमिलनाडु में इसका नेतृत्व आयोथी थास (20 मई 1845-1914) ने किया, तो महाराष्ट्र में इसका नेतृत्व डॉ. आंबेडकर (14 अप्रैल 1891-6 दिसंबर 1956) ने किया, जो बाद पूरे देश के दलितों के विद्रोह के मार्गदर्शक बने। केरल में इस विद्रोह का नेतृत्व अय्यंकाली( 28 अगस्त 1863-18 जून 1941) ने किया है और उन्होंने वहां उथल-पुथल मचा दी। वहां के सामाजिक संबंधों में काफी हद आमूल-चूल परिवर्तन ला दिया और अपनी बैलगाड़ी से सवर्णों के जातीय श्रेष्ठता बोध के अभिमान को रौंद दिया।

केरल में आधुनिकता की नींव डालने वाले पहले व्यक्ति श्रीनाराण गुरु (20 अगस्त, 1856 – 20 सितंबर, 1928) थे, लेकिन इस नींव पर विशाल भवन जिन लोगों ने खड़ा किया, उनमें दलित विद्रोही अय्यंकाली की निर्णायक भूमिका है। जिन्होंने केरल में समानता एवं न्याय क की आधुनिक चेतना को सबसे निचले स्तर तक विस्तारित कर दिया। बहुतों के लिए यह कल्पना करना मुश्किल हो सकता है कि जो व्यक्ति न लिख सकता और न पढ़ सकता, उसने पढ़ने के अधिकार के लिए ऐसा आंदोलन चलाया हो, जिसकी दुनिया में शायद कोई मिसाल न हो, जो व्यक्ति किसी तरह हस्ताक्षर करना सीखा हो, वह व्यक्ति आधुनिक केरल के निर्माताओं में सबसे अगली पंक्ति में खड़ा हो। इस मामले में आय्यंकाली से तुलना के संदर्भ में कबीर और रैदास याद आते हैं, जिन्होंने औपचारिक शिक्षा से वंचित होने के बावजूद भी भारतीय मध्यकालीन बहुजन नवजागरण का नेतृत्व किया।

केरल में दलितों के ऊपर नंबूदरी ब्राह्मणों एवं नायरों ने ऐसी अनेक बंदिशें लाद रखीं थी, जिसकी कल्पना करना भी किसी सभ्य समाज एवं इंसान के लिए मुश्किल है। मुख्य सड़कों पर दलित चल नहीं सकते थे, बाजारों में वे प्रवेश नहीं कर सकते, स्कूलों के द्वार उनके लिए बंद थे, मदिरों में उनका प्रवेश वर्जित था, अदालत के भीतर पांव रखने की उन्हें इजाजत नहीं थी, उनके मुकदमें अदालत के बाहर सुने जाते थे। महिलाएं और पुरुष कमर के ऊपर और घुटने के नीचे वस्त्र नहीं पहन सकते थे।

महिलाएं यदि अपना स्तन ढ़कने की कोशिश करती, तो उन्हें टैक्स देना पड़ता था। कई फीट की दूरी से उनकी छाया नंबूदरी ब्राह्मणों को अपवित्र कर सकती थी। इसी स्थिति को देखकर स्वामी विवेकनंद ने इसे जातियों का पागल कहा था। इस स्थिति को तोड़ने की केरल में पहली कोशिश श्रीनारायण गुरु ने की, लेकिन उनकी कोशिशों का ज्यादा फायदा दलितों से ऊपर की मध्य जातियों-विशेष इजावा जाति को मिला। हां उन्होंने उस चेतना को जरूर जन्म दिया और विस्तार किया, जिससे दलितों के बीच अय्यंकाली जैसा विद्रोही व्यक्तित्व जन्म लिया।

28 अगस्त 1863 को अय्यंकाली का जन्म त्रावणकोर जिले में, त्रिरुवनंतपुरम् से 13 किलोमीटर उत्तर दिशा में स्थित वेंगनूर नामक गांव में पुलाया जाति (दलित) में हुआ था। भारत में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो, जो दलित जाति में जन्म लिया हो और उसे जातीय अपमान का सामना न करना पड़ा, चाहे वह दुनिया के विश्व प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों से पढ़कर आए डॉ. आंबेडकर ही क्यों न हो। अय्यंकाली को जातीय अपमान का अनुभव बचपन में ही हो गया था, जब उनकी फुटबाल की गेंद एक नायर परिवार के अहाते में जा गिरी। अपमानित बालक शायद डॉ. आंबेडकर की तरह, लेकिन उनसे पहले इस जातीय अपमान से मुक्ति का संकल्प मन-मन ही मन ले लिया।

हालांकि अय्यंकाली को भी जोतीराव फुले ( 11 अप्रैल 1827-28 नवंबर 1890) की तरह उनके पिता ने समझाया कि यही परिपाटी है, इसे स्वीकार करना होगा यानि जातीय अपमान स्वीकार करने और बर्दाश्त करके जीना सीखना होगा, लेकिन अय्यंकाली ने कुछ और ही ठान लिया था। आयोथी थास, स्वामी अछूतानंद ( 6 मई 1879-20 जुलाई 1933) और डॉ. आंबेडकर जैसे दलित विद्रोहियों के विपरीत अय्यंकाली को स्कूल जाना मयस्सर नहीं हुआ और उन्हें अक्षर ज्ञान नहीं मिल पाया। इसका कारण यह था कि न तो उनके पिता अंग्रेजों की सेना में थे और न ही त्रावणकोर राज्य के उस हिस्से में ईसाई मिशनरियों का कोई स्कूल था, क्योंकि सैनिक छावनी और मिशनरी स्कूल ही वे जगहें थे,जहां दलितों की पहली पीढ़ी शिक्षित हुई थी या महाराष्ट जैसी जगहों पर जोतीराव फुले ने दलितों के लिए स्कूल खोला।

ऐसा कोई भी स्कूल अय्यंकाली को नसीब नहीं हुआ। उन्होंने ने अपने समकालीन और बाद के दलितों नायकों से कुछ अलग ब्राह्मणवाद के खिलाफ सीधे विद्रोह का रास्ता चुना और इसके चलते उन्हें और उनके साथियों को नायरों के हिंसक हमलों का सामना भी करना पड़ा, जिसका पुरजोर जवाब उसी तरह से अय्यंकाली और उनके साथियों ने दिया। इस सीधे विद्रोह का शायद एक कारण यह था कि त्रावकोण राज्य में प्रत्यक्ष तौर ब्रिटिश शासन नहीं था, वहां हिंदू राज्य ब्राह्मणवादी व्यवस्था के अनुसार राज्य करता था। ब्रिटिश सुधारों के चलते जो थोड़ी सी सांस लेने की गुंजाइश तमिलनाडु में आयोथी थास, महाराष्ट्र में डॉ. आंबेडकर और उत्तर प्रदेश में स्वामी अछूनानंद को को मिली हुई थी, वह भी त्रावणकोण में अय्यंकाली को प्राप्त नहीं थी।

करीब 27 वर्ष की उम्र अय्यंकाली ने एक ऐसा कदम उठाया, जो केरल ही नहीं, दुनिया के इतिहास में दर्ज करने वाला बन गया। केरल में मुख्य रास्तों पर दलितों को चलने की मनाही थी, अय्यंकाली ने 1891 में दलितों के लिए वर्जित सड़कों पर बैलगाड़ी दौड़ाने का निर्णय लिया। उन्होंने बैलगाड़ी तैयार कर उन रास्तों पर दौड़ाई, जिस पर उनके पूर्वज चलने की सोच भी नहीं सकते। नंबूदरी ब्राह्मण और ब्राह्मण के बाद खुद सबसे श्रेष्ठ समझने वाले नायरों को लगा जैसे यह बैलगाड़ी सड़कों को न रौंद कर, उनकी छाती को रौंद रही हो और वे लाठी-डंडों के साथ उनके ऊपर टूट पड़े। लेकिन अय्यंकाली भी तैयारी करके निकले थे, उन्होंने हमलावरों से निपटने के लिए अपने पास पहले से रखी कटार (खुखरी) निकाल मैदान में कूद पड़े। बुजदिल हमलावर भाग खड़े हुए। इस तरह अय्यंकाली ने सर्वणों के जातीय श्रेष्ठता के अभिमान को मिट्टी में मिला दिया। उन्होंने ब्राह्मणवाद की करीब हर उस व्यवस्था को चुनौती दी, जो दलितों को मनुष्य होने के दर्जे से वंचित करती थी और उन्हें अपमानित करती थी।

असाक्षर, लेकिन आधुनिकता की चेतना एवं संवेदना से लैश अय्यंकाली ने बहुजन पुनर्जागरण के जनक जोतीराव फुले की तरह शिक्षा को मुक्ति का द्वार माना। उन्होंने 1904 दलितों के लिए पहले स्कूल की नींव रखी, लेकिन सवर्णों के यह सहन नहीं हुआ, उन्होंने उनके स्कूल को दो बार जला दिया, लेकिन वे हार मानने वाली मिट्टी के नहीं बने थे, आखिर उन्होंने त्रावणकोर में दलितों का पहला स्कूल खोल ही दिया।

दुनिया के इतिहास शायद कोई ऐसी दूसरी घटना घटी, जो मजदूरों ने शिक्षा के अधिकार को लागू कराने के लिए हड़ताल किया हो। शिक्षा के अधिकार को लागू कराने के लिए अय्यंकाली के नेतृत्व में दलितों ने सवर्णों के खेतों में काम करना बंद कर दिया। नायरों ने इस हड़ताल को तोड़ने की हर कोशिश की, लेकिन अय्यंकाली के कुशल नेतृत्व के चलते हड़ताल सफल हुई और दलितों को स्कूलों में प्रवेश का अधिकार प्राप्त हो गया। यह हड़ताल करीब एक वर्ष ( 1907-1908) तक चली।

नायर शास्त्र सम्मत वर्ण-व्यवस्था के अनुसार शूद्र थे, लेकिन आर्थिक-सामाजिक हैसियत में उत्तर भारत के सवर्णों ( राजपूतों) की स्थिति में थे, अ्य्यंकाली की सीधी टकराहट सबसे अधिक नायरों से हुई, वहीं ब्राह्मणवाद की अगली पंक्ति के सबसे मजबूत दीवार बनकर उनके सामने खड़े होते थे। शिक्षा के अधिकार को व्यवहार में उतारने के लिए अय्यंकाली पूजारी अय्यपन की 8 वर्ष की बेटी पंजामी को लेकर ऊरुट्टमबलम गवर्नमेंट गर्ल्स स्कूल पहुंचे। उनके पास डाइरेक्टर ऑफ़ पब्लिक इंस्ट्रक्शन मिशेल के विशेष आदेश थे। प्रधानाचार्य ने बच्ची का दाखिला करने में अपनी असमर्थता जाहिर की।

अय्यंकाली द्वारा विशेष आदेश दिखाने के बाद वह पंजामी को कक्षा के अंदर बिठाने के लिए तैयार हो गया। परंतु उस बच्ची के कक्षा में बैठते ही, नायर विद्यार्थियों ने कक्षा का बहिष्कार कर दिया। अय्यंकाली हार मानने वाले नहीं थे, उन्होंने दलित बच्चों के लिए शिक्षा अधिकार व्यवहार में हासिल करके ही दम लिया।

वर्जित सड़कों पर चलने और शिक्षा का अधिकार हासिल करने के बाद अय्यंकाली ने दलित महिलाओं की गरिमा और आत्मसम्मान के लिए संघर्ष शुरू किया। जैसा कि ऊपर जिक्र किया गया है कि दलित महिलाओं को नंबूदरी ब्राह्मणों की व्यवस्था के अनुसार अपना स्तन ढकने का अधिकार नहीं था और यदि वह ढकने की कोशिश करती, तो उन्हें टैक्स देना पड़ता था। यह टैक्स उनके स्तन के आकार के आधार पर तय होता है। इस मानव गरिमा विरोधी व्यवस्था के खिलाफ अय्यंकाली ने संघर्ष का बिगुल फूंक दिया।

1915 उन्होंने दलित एवं आदिवासी स्त्रियों का आह्वान किया कि वे इस घिनौनी व्यवस्था को चुनौती देते हुए, अपने स्तन ढ़कें और ब्लाउज पहने। उनके आह्वान पर हजारों दलित-आदिवासी महिलाओं ने ऐसा किया। महिलाओं द्वारा ऐसा करने पर तथाकथित ऊंची जातियों में खलबली मच गई। ऊंची जातियों ने दलितों के घरों पर हमला बोला। कई दलित महिलाओं के स्तन उच्च जातियों के लोगों ने काट डाले। उनके परिवार के सदस्यों को आगे हवाले कर दिया। फिर भी महिलाएं पीछे नहीं हटीं, न अय्यंकाली पीछे हटे।

अय्यंकली का जीवन दलितों के लिए निरंतर संघर्ष करते हुए बीता, एक संघर्ष खत्म नहीं होता कि दूसरा शुरू हो जाता,क्योंकि वे दलितों के वे सभी अधिकार दिलाना चाहते थे, जिनसे उन्हें वंचित रखा गया था। दलितों को मुख्य बाजारों में प्रवेश का भी अधिकार नहीं था। उन्होंने अपने साथियों के साथ उन बाजारों में प्रवेश किया। इस बार भी सवर्णों ने दलितों पर लाठी-डंडे और अन्य हथियारों के साथ हमला बोल दिया। दलितों ने भी इस बार करारा जवाब दिया है। जगह-जगह हिंसक झडपें हुईं। अय्यंकाली के नेतृत्व में दलित समाज का स्वाभिमान जाग चुका था। आत्मसम्मान और गरिमा के साथ जीने के लिए दलित अय्यंकाली के नेतृत्व में हर तरह संघर्ष के लिए तैयार थे, जिसमें स्त्री-पुरूष दोनों शामिल थे।

शिक्षा और समान अधिकार हासिल करने के लिए संगठन जरूरी है, इसका अहसास अय्यंकाली को बखूबी था। उन्होंने 1904 में ‘साधु जन परिपालन संघ’(गरीब रक्षार्थ संघ) की स्थापना की। सभी दलित जातियों लोग इसकी सदस्यता ले सकते थे। संगठन का उद्देश्य दलितों को अंधविश्वास, गुलामी, अशिक्षा और गरीबी से मुक्ति हासिल कराना और जीवन के सभी क्षेत्रों में समानता का अधिकार प्राप्त करना था। सवर्णों के हमलों के डर से पहले इस संगठन की गुप्त बैठकें होती थीं, लेकिन बाद खुले में भी बैठकें होने लगीं।

इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि केरल भारत का एक ऐसा प्रदेश है, जिसका काफी हद तक आधुनिकीकरण हुआ है और वहां एक आधुनिक नागरिक समाज का निर्माण हुआ है। वहीं यह भी सच है कि वर्ण-जाति व्यवस्था एवं पितृसत्ता के बहुत सारे अवशेष आज भी शेष भारत की तरह केरल में भी अपनी उपस्थिति बनाए हुए हैं। इसके बावजूद भी केरल भारत का सबसे आधुनिकीकृत प्रदेश है और शीर्ष आधुनिक देशों से बहुत सारे मामलों में बराबरी करता है। मानव विकास सूचकांक में भारत के सभी प्रदेशों में शीर्ष पर है और दुनिया के शीर्ष देशों की बराबरी करता है। कोविड-19 से निपटने के मामले में भी केरल मॉडल की दुनिया भर में चर्चा हो रही है।

ऐसा केरल एक दिन में नहीं बना है, न ही किसी एक व्यक्ति के प्रयास से बना है।यह सर्वविदित है कि जब किसी देश या प्रदेश के समाज में एक गहरी उथल-पुथल मचती है और वह अपने मध्यकालीन जड़ विचारों से मुक्त होता है तथा आधुनिक बौद्धिक, तार्किक एवं विवेकसंगत विचारों को अपनाता है, तभी वह एक आधुनिक देश या प्रदेश बनता है। किसी देश-प्रदेश के आधुनिक उन्नत एवं समृद्ध देश-प्रदेश में तब्दील होने के लिए वहां के लोगों के मन-मस्तिष्क में बुनियादी बदलाव और उनके सोचने-देखने के तरीके का मानवीय एवं वैज्ञानिक होना जरूरी होता है। यानि उनकी विश्व-दृष्टि बदलनी चाहिए।

इसके साथ ही वहां के सामाजिक-आर्थिक संबंधों में परिवर्तन आना चाहिए, जिसके अनुसार ही अक्सर वहां की राजनीति अपना आकार ग्रहण करती है। यह सब कुछ मिलकर एक ऐसे नागरिक समाज का निर्माण करते हैं, जिसे आधुनिक समाज कहा जा सकता है। भारत में केरल एक ऐसा ही प्रदेश है। इस संबंध में सारे उपलब्ध तथ्य इसके साक्षी हैं।

केरल के आधुनिक और मॉडल राज्य बनाने की नींव श्रीनाराणय गुरु ने डाली थी, जिसे केरल के पहले दलित विद्रोही अय्यंकली ने विस्तार एवं नई उंचाई दी। 18 जून, 1941 को अय्यंकली ने अंतिम विदा ली।

 

आज भारत में दलितों की स्थिति क्या है?

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