रविवार, 26 अक्टूबर 2025

दलित बनाम बहुजन एवं बहु-वर्गीय एकता की आवश्यकता

 

दलित बनाम बहुजन एवं बहु-वर्गीय एकता की आवश्यकता

-    एस.आर. दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट

 

पिछले काफी समय से राजनीति में दलित की जगह बहुजन शब्द का इस्तेमाल हो रहा है. बहुजन अवधारणा के प्रवर्तकों के अनुसार बहुजन में दलित और पिछड़ा वर्ग शामिल हैं. कांशी राम के अनुसार इस में मुसलमान भी शामिल हैं और इन की संख्या 85% है. उन की थ्योरी के अनुसार बहुजनों को एक जुट हो कर 15% सवर्णों से सत्ता छीन लेनी चाहिए. वैसे सुनने में तो यह सूत्र बहुत अच्छा लगता है और इस में बड़ी संभावनाएं भी लगती हैं. परन्तु देखने की बात यह है कि बहुजन को एकता में बाँधने का सूत्र क्या है. क्या यह दलितों और पिछड़ों के अछूत और शूद्र होने का सूत्र है या कुछ और? अछूत और शूद्र असंख्य जातियों में बटे हुए हैं और वे अलग दर्जे के जाति अभिमान से ग्रस्त हैं. वे ब्राह्मणवाद (श्रेष्ठतावाद) से उतने ही ग्रस्त हैं जितना कि वे सवर्णों को आरोपित करते हैं. उन के अन्दर कई तीव्र अंतर्विरोध हैं. पिछड़ी जातियां आपने आप को दलितों से ऊँचा मानती हैं और वैसा ही व्यवहार भी करती हैं. वर्तमान में दलितों पर अधिकतर अत्याचार उच्च जातियों की बजाये पिछड़ी संपन्न (कुलक) जातियों द्वारा ही किये जा रहे हैं. अधिकतर दलित मजदूर हैं और इन नव धनाडय जातियों का आर्थिक हित मजदूरों से टकराता है. इसी लिए मजदूरी और बेगार को लेकर यह जातियां दलितों पर अत्याचार करती हैं. ऐसी स्थिति में दलितों और पिछड़ी जातियों में एकता किस आधार पर स्थापित हो सकती है? एक ओर सामाजिक दूरी है तो दूसरी ओर आर्थिक हित का टकराव. अतः दलित और पिछड़ा या अछूत और शूद्र होना मात्र एकता का सूत्र नहीं हो सकता. यदि राजनीतिक स्वार्थ को लेकर कोई एकता बनती भी है तो वह स्थायी नहीं हो सकती जैसा कि व्यवहार में देखा भी गया है.

अब अगर दलित और पिछड़ा का वर्ग विश्लेषण किया जाये तो यह पाया जाता है कि दलितों के अन्दर भी संपन्न और गरीब वर्ग का निर्माण हुआ है. पिछड़ों के अन्दर अंगड़ा एवं पिछड़ा वर्ग और अति पिछड़ा वर्ग का विभेद तो बहुत स्पष्ट है. पिछले कुछ समय से दलित और पिछड़े वर्ग के संपन्न वर्ग ने ही आर्थिक विकास का लाभ उठाया है और राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी  प्राप्त की है. इस के विपरीत दलित और पिछड़ा वर्ग का बहुसंख्यक हिस्सा आज भी बुरी तरह से पिछड़ा हुआ है. इसी विभाजन को लेकर अति- दलित और अति -पिछड़ा वर्ग की बात उठ रही है. इस से भी स्पष्ट है कि बहुजन की अवधारणा केवल हवाई अवधारणा है. इसी प्रकार मुसलमानों के अन्दर भी अशरफ, अजलाफ़ और अरजाल का विभाजन है जो कि पसमांदा  (पिछड़े मुसलमान) के रूप में सामने आ रहा है.

अब प्रश्न पैदा होता है इन वर्गों के अन्दर एकता का वास्तविक सूत्र क्या हो सकता है. उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों के अन्दर अगड़ा  व पिछड़ा  दो वर्ग हैं जिन के आर्थिक एवं राजनीतिक हित अलग अलग हैं और इन में तीखे अन्तर्विरोध तथा टकराव भी हैं. अब तक इन वर्गों का प्रभुत्वशाली तबका जाति और धर्म के नाम पर पूरी जाति/वर्ग और सम्प्रदाय का नेतृत्व करता आ रहा है और इसी तबके ने ही विकास का जो भी आर्थिक और राजनीतिक लाभ हुआ है, उसे उठाया है. इस से इन के अन्दर जाति/वर्ग विभाजन और टकराव तेज हुआ है. विभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ इस जाति/वर्ग विभाजन का लाभ उठाती रही हैं परन्तु किसी भी पार्टी ने न तो इन के वास्तविक मुद्दों को चिन्हित किया है और न ही इन के उत्थान के लिए कुछ किया है.

हाल में भाजपा ने इन्हें हिन्दू के नाम पर इकट्ठा करके इन का वोट बटोरा है. अगर देखा जाये तो यह वर्ग सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तौर पर पिछड़ा हुआ है. इन वर्गों का वास्तविक उत्थान उन के पिछड़ापन से जुड़े हुए मुद्दों को उठाकर और उन को हल करने की नीतियाँ बना कर ही किया जा सकता है. अतः इन की वास्तविक एकता इन मुद्दों को लेकर ही बन सकती है न कि जाति और मज़हब को लेकर. यदि आर्थिक और राजनीतिक हितों की दृष्टि से देखा जाये तो यह वर्ग प्राकृतिक दोस्त हैं क्योंकि इन की समस्याएं एक समान हैं और उन की मुक्ति का संघर्ष भी एक समान ही है.

 बहुजन के छाते के नीचे अति पिछड़े तबके के मुद्दे और हित दब जाते हैं. अतः इन अति पिछड़े तबकों की मजबूत एकता स्थापित करने के लिए जाति/मज़हब पर आधारित बहुजन की कृत्रिम अवधारणा के स्थान पर इन के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पिछड़ापन से जुड़े मुद्दे उठाये जाने चाहिए. जाति एवं धर्म की राजनीति हिंदुत्व को ही मज़बूत करती है. इसी ध्येय से आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ़) ने अपने एजंडे में सामाजिक न्याय के अंतर्गत: (1) पिछड़े मुसलमानों का कोटा अन्य पिछड़े वर्ग से अलग किए जाने, धारा 341 में संशोधन कर दलित मुसलमानों व ईसाइयों को अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने, सच्चर कमेटी व रंगनाथ मिश्रा कमेटी की सिफारिशों को लागू करने; (2) अति पिछड़ी हिन्दू व मुस्लिम जातियों को अन्य पिछड़े वर्ग के 27% कोटा में से में से अलग आरक्षण कोटा दिए जाने; (3) पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था को जल्दी से जल्दी बहाल किए जाने ; (4) एससी/एसटी के कोटे के रिक्त सरकारी पदों को विशेष अभियान चला कर भरे जाने; (5) निजी क्षेत्र में भी दलितों, आदिवासियों, अन्य पिछड़ा वर्ग व अति पिछड़ा वर्ग को आरक्षण दिए जाने; (6) 0 प्र0 की कोल जैसी आदिवासी जातियों को जनजाति का दर्जा दिए जाने; (7) वनाधिकार कानून को सख्ती से लागू करने तथा रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाने आदि के मुद्दे शामिल किये हैं.

 इन तबकों को प्रतिनिधित्व देने के ध्येय से पार्टी ने अपने संविधान में दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक और महिलायों के लिए 75% पद आरक्षित किये हैं. आइपीएफ बहुजन की जाति आधारित राजनीति के स्थान पर मुद्दा आधारित वर्गीय राजनीतिक एकता को बढ़ाने के लिए प्रयासरत है जैसा कि डॉ. आंबेडकर ने भी रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया की स्थापना करके किया था। इसी ध्येय से वर्तमान में आइपीएफ़ द्वारा रोजगार एवं सामाजिक अधिकार अभियान चलाया जा रहा है जिसे बहुत अच्छा समर्थन मिल रहा है.

शनिवार, 25 अक्टूबर 2025

बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के पतन के लिए ज़िम्मेदार कारक

 

बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के पतन के लिए ज़िम्मेदार कारक

एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट)

बहुजन समाज पार्टी (BSP) की स्थापना कांशी राम ने 1984 में दलितों और हाशिये पर पड़े समुदायों को सशक्त बनाने के लिए की थी। 2007 में पार्टी ने उत्तर प्रदेश (UP) में एक बड़े "सर्वजन" गठबंधन के साथ पूर्ण बहुमत हासिल करके अपनी चरम सीमा हासिल की। ​​हालाँकि, 2012 से, पार्टी में भारी गिरावट आई है, जिसका सबूत 2007 में लगभग 30% से घटकर 2024 के लोकसभा चुनावों में 9.39% वोट शेयर (0 सीटें जीतीं) और 2022 के UP विधानसभा चुनावों में केवल 1 सीट मिलना है। यह गिरावट आंतरिक, रणनीतिक और बाहरी कारकों के मेल से हुई है। नीचे,  राजनीतिक कमेंट्री और अकादमिक जानकारियों के विश्लेषण के आधार पर मुख्य कारणों का उल्लेख किया जा रहा है।

मायावती के नेतृत्व में विफलताएँ और केंद्रीकरण

मायावती के लंबे समय तक प्रभुत्व के कारण एक अत्यधिक केंद्रीकृत, वंशवादी ढाँचा बन गया है जो इनोवेशन और जवाबदेही को रोकता है। पार्टी कांशी राम के जमीनी स्तर के आंदोलन से हटकर एक "सुप्रीमो-केंद्रित" इकाई बन गई, जिसमें अपने भतीजे आकाश आनंद को उत्तराधिकारी नियुक्त करने जैसे फैसलों से कार्यकर्ता नाराज़ हो गए। भूमि माफियाओं से संबंध और व्यक्तिगत संपत्ति जमा करने सहित भ्रष्टाचार के आरोपों ने उनकी छवि खराब की, जबकि उनके सीमित चुनाव प्रचार (अक्सर केंद्रीय एजेंसियों की जाँच के डर के कारण) ने उनकी दृश्यता कम कर दी। चुनाव के बाद, उन्होंने आंतरिक सुधारों के बजाय EVM और मुस्लिम अविश्वास जैसे बाहरी कारकों को दोषी ठहराया, जिससे विश्वसनीयता कम हुई।

मुख्य दलित मतदाता आधार का क्षरण

बसपा का पारंपरिक जाटव दलित समर्थन (UP की आबादी का लगभग 10%) खंडित हो गया है, यहाँ तक कि वफादार मतदाता भी BSP, BJP और SP-कांग्रेस गठबंधन के बीच बँट गए हैं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि गैर-जाटव दलित (UP की 21% SC आबादी का बहुमत) 2014 से बड़े पैमाने पर BJP की ओर चले गए, जो उसके "सबअल्टर्न हिंदुत्व" और उज्ज्वला और PM आवास योजना जैसी कल्याणकारी योजनाओं से आकर्षित हुए। 2022 के बाद के सर्वेक्षणों से पता चला कि आधे से भी कम दलितों ने BSP को वोट दिया, जिसमें एक चौथाई जाटव और आधे गैर-जाटव BJP की ओर चले गए। यह एक ऊपर उठते हुए दलित मध्यम वर्ग की आकांक्षाओं को पूरा करने में पार्टी की विफलता को दर्शाता है।

बड़े गठबंधन और अल्पसंख्यक/ओबीसी समर्थन का नुकसान

2007 की "सर्वजन" रणनीति ने कुछ समय के लिए दलितों, ब्राह्मणों, मुसलमानों और ओबीसी को एकजुट किया, लेकिन दलित कार्यकर्ताओं के विरोध के कारण मुख्य वोटरों तक सीमित रहना पड़ा, जिससे सहयोगी दूर हो गए। ब्राह्मण बीजेपी में चले गए, मुसलमान एसपी में, और कुर्मी, कोइरी और राजभर जैसे ओबीसी समूह भी बीएसपी की समावेशी संदेश को बनाए रखने में असमर्थता के कारण ऐसा ही करने लगे। 2024 में, अल्पसंख्यकों और ओबीसी ने बड़े पैमाने पर एसपी-कांग्रेस INDIA ब्लॉक का समर्थन किया, जिससे बीएसपी एक "स्पॉइलर" बनकर रह गई जिसने बीजेपी विरोधी वोटों को बांटकर परोक्ष रूप से बीजेपी की मदद की।

संगठनात्मक गिरावट और नेतृत्व का पलायन

पार्टी को कुंवर दानिश अली और रितेश पांडे जैसे सांसदों और विधायकों सहित कई दिग्गजों के बड़े पैमाने पर पलायन का सामना करना पड़ा है, जो "बेहतर अवसरों" के लिए बीजेपी या एसपी में चले गए हैं। जमीनी स्तर के कार्यकर्ता कमजोर हो गए हैं, चुनावों के दौरान मुख्य दलित क्षेत्रों में कोई बैनर या रैलियां दिखाई नहीं देतीं, जो अरुचि का संकेत है। यह लेन-देन वाली राजनीति से उपजा है - बिना किसी वैचारिक जांच के फंड/टिकट के लिए दलबदलुओं का स्वागत करना - जिसने बीएसपी को एक स्थायी आंदोलन के बजाय एक "चुनाव मशीन" में बदल दिया है।

वैचारिक कठोरता और राजनीतिक बदलावों के अनुकूल ढलने में विफलता

बीएसपी की बीजेपी की हल्की आलोचना, संवैधानिक क्षरण जैसे मुद्दों पर चुप्पी, और विपक्षी अभियानों (जैसे, "संविधान बचाओ") से दूरी ने प्रतिद्वंद्वियों को दलितों की चिंताओं को भुनाने का मौका दिया। इसने 2007-2012 के शासन के दौरान पुनर्वितरण जैसे सामाजिक-आर्थिक सुधारों की उपेक्षा की, शासन के बजाय प्रतीकात्मकता (जैसे, अंबेडकर की मूर्तियां) पर ध्यान केंद्रित किया। बीजेपी-एसपी के प्रभुत्व वाली यूपी की द्विध्रुवीय राजनीति में, प्रभावी गठबंधन बनाने से बीएसपी के इनकार (दलित हितों के अधीन होने के डर से) ने इसे और अलग-थलग कर दिया।

व्यापक बाहरी दबाव: बीजेपी का प्रभुत्व और ध्रुवीकरण

बीजेपी की संगठनात्मक ताकत, कल्याणकारी लोकलुभावनवाद और हिंदू राष्ट्रवादी अपील ने दलित-बहुजन एकता को खंडित कर दिया है, जिससे गैर-जाटव एससी और ओबीसी उसके पाले में आ गए हैं। राम मंदिर उद्घाटन जैसे कार्यक्रमों ने इसे और बढ़ा दिया, जबकि बीएसपी की नरम रणनीति इसका मुकाबला करने में विफल रही। इसके अलावा, नई दलित आवाजों (जैसे, भीम आर्मी के चंद्रशेखर आज़ाद) के उदय ने दलित लामबंदी पर बीएसपी के एकाधिकार को कम कर दिया है।

हालांकि ये फैक्टर् BSP की भारी गिरावट को समझाते हैं, लेकिन कुछ एनालिस्ट्स का कहना है कि यह "परमानेंट" नहीं है। पार्टी का लगातार ~10% वोट शेयर एक मज़बूत कोर दिखाता है, और पिछली रिकवरी (जैसे 1990 के दशक के बाद की गिरावट) से पता चलता है कि अगर मायावती दूसरी लाइन की लीडरशिप को बढ़ावा देती हैं और जाति जनगणना की मांगों के हिसाब से खुद को ढालती हैं तो पार्टी फिर से मज़बूत हो सकती है। हालांकि, बिना आत्मनिरीक्षण के, UP के बदलते माहौल में पार्टी का महत्व खत्म होने का खतरा है।

साभार: गरोक.काम  

दलित बनाम बहुजन एवं बहु-वर्गीय एकता की आवश्यकता

  दलित बनाम बहुजन एवं बहु-वर्गीय एकता की आवश्यकता -     एस.आर. दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष , आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट   पिछले काफी सम...