शनिवार, 22 अक्टूबर 2016

नास्तिकता का अर्थ - संजय जोठे

नास्तिकता  का अर्थ - संजय जोठे
भाग्य से आजकल भारत में नास्तिकता चर्चा में है. यह अच्छा लक्षण है और इसके साथ एक चिंता भी जुडी हुई है. यह अच्छा लक्षण इस अर्थ में है कि जब-जब कोई समाज नास्तिक होने का दुस्साहस दिखाता है तब-तब वहां संस्कृति सभ्यता और ज्ञान विज्ञान का तेजी से विकास होता है. या कहें कि ज्ञान विज्ञान के विकास और नास्तिकता में एक समानुपातिक संबंध है. भारत जब अतीत में बौद्धों और जैनों (और कुछ हद तक लोकायतों सहित आजीवकों) के साथ नास्तिक था - तब भारत की सभ्यता अपने शिखर पर थी और दार्शनिक ज्ञान में ही नहीं बल्कि भौतिक ज्ञान में भी भारत अपने ज्ञात शिखर पर था इसी दौर में गणित, खगोल, भेषज,धातुविज्ञान और शल्य चिकित्सा तक पर भारी काम हुआ था आजकल के हिन्दू ज्ञान विज्ञान का जो दावा करते हैं वह सब ज्ञान विज्ञान न तो वेदों से संबंधित है न आस्तिकों से. इसी दौर में भारत सोने की चिड़िया था जिस पर हमला करने के लिए पहले यवन फिर हूँण, तातार, शक इत्यादि योजना बना रहे थे. बाद में आस्तिक और वेदवादी धर्मों के उभार के बाद भारत पा पतन आरंभ हुआ जो कई अर्थों में आज तक जारी है.
आज नास्तिकता के इस दुस्साहस से जुड़े अवसर के साथ एक चिंता भी जुडी हुई है. वह चिंता इस बात की है कि नास्तिकता चर्चा में जिस ढंग से आई है वह ढंग खतरनाक है. नास्तिकता को एक संगठित आन्दोलन न बनने देने के प्रयासों ने यह खबर बनाई है, न कि नास्तिकता ने स्वयं मुखर होकर कुछ कहना आरंभ किया है. इस अंतर को समझना होगा. नास्तिकता अगर अपने शिक्षण के कंटेंट और उस कंटेंट को डिलीवर करने की सफलता के कारण चर्चा में आये तो यह शुभ है लेकिन नास्तिकता पर हमले के कारण यह चर्चा में आई है यह बात गलत हुई जा रही है.
भारत में नास्तिकता हमेशा ही एक बिखरी हुई प्रवृत्ति रही है. ऊपर-ऊपर प्रगतिशील नजर आने वाले लोग भी घर के अंदर न सिर्फ आस्तिक हो जाते हैं बल्कि कर्मकांडी और पाखंडी तक हो जाते हैं. वे अपने बच्चों को घर में समुद्र लांघ जाने वाले देवता सिखाते हैं और स्कूल में न्यूटन का गुर्त्वाकर्षण और सौर मंडल का माडल सिखाते हैं, इसी कारण उनके बच्चे कुछ भी तय नहीं कर पाते और विज्ञान तो कभी सीख ही नहीं पाते हैं. इन दो मुंहे प्रगतिशीलों को छोड़ें तो भी बिखरे हुए रूप में सच्चे नास्तिक भारत भर में फैले रहे हैं लेकिन उनमे बड़े पैमाने पर आपस में कोई सम्बन्ध नहीं निर्मित हुआ है. अब फेसबुक और सोशल मीडिया ने उन्हें भी सम्बन्धित होने के लिए मंच दे दिया है. इन नास्तिकों ने पहली बार हिम्मत करके एक सामूहिक कदम उठाया है और वृन्दावन के दुस्साहसिक बुद्धिजीवी बालेन्दु स्वामी जी के नेतृत्व में यह एक आन्दोलन की शक्ल लेने को तैयार हुआ जा रहा है. इस सब पर हमला होना ही था. अगर हमला न होता तो मानना पड़ता कि यह पहल ईमानदार या धारदार नहीं है. हर अच्छी और इमानदार पहल पर हमला होना ही है. यही उस पहल के वैध, शुभ और शक्तिशाली होने का पहला प्रमाण है.
नास्तिकता की यह पहल क्यों हुई है और इसका विरोध क्यों हो रहा है इसको समझने के लिए पहले आस्तिकता और नास्तिकता को ही समझना होगा. दुनिया के अन्य देशों में ईश्वर,उसकी किताब और धर्मादेशों में आस्था रखने को आस्तिकता कहा जाता है और इन्हें नकारने वालों को नास्तिक कहा जाता है. हालाँकि यह बहुत मोटा मोटा विभाजन है इसमें अन्दर बहुत सारे जाल हैं लेकिन हमारी चर्चा के लिए इतना विस्तार पर्याप्त है. एक अदृश्य से ‘करुणावान’ (इसाइयत और इस्लाम) या ‘भयानक’ (यहूदी) ईश्वर और उसकी किताबों में भरोसा करना ईमान का या विश्वास का चिन्ह है जिसे आस्तिकता माना जा सकता है. लेकिन भारत में या स्पष्ट रूप से कहें तो भारतीय दर्शन में आस्तिक का अर्थ ईश्वर में विश्वास करना नहीं होता है. भारतीय दर्शन में आस्तिक का अर्थ वेदों में आस्था रखने से है, वेद अपौरुषेय हैं और उनके ज्ञान को चुनौती नहीं दी जा सकती – ऐसा मानने वाले दर्शन आस्तिक दर्शन कहलाते हैं और वेदों के ज्ञान और उस ज्ञान की अपौरुषेयता को नकारने वाले दर्शन नास्तिक दर्शन कहलाते हैं.
ईश्वर को लेकर इस विभाजन का भी कोई अर्थ नहीं है क्योंकि सांख्य और योग दोनों ही दर्शन आते तो आस्तिक दर्शन की श्रेणी में हैं, लेकिन ईश्वर को क्रमशः या तो सीधे सीधे अस्वीकार करते हैं या फिर धारणा का विषय मात्र मानते हैं. सरल शब्दों में कहें तो सांख्य दर्शन ईश्वर को मानता ही नहीं और योग दर्शन के लिए ईश्वर सिर्फ धारणा का विषय है जिससे किन्ही ख़ास मनोवैज्ञानिक रुझान के लोगों को साधना में सुविधा होती है. योग इस तरह ईश्वर का“इस्तेमाल” किसी ख़ास मकसद से कर रहा है,शायद यह दुनिया का एकमात्र दर्शन है जो किसी अन्य “ईश्वर से भी बड़े साध्य” के लिए ईश्वर को साधन बनाकर “उपयोग” करने का साहस रखता है. लेकिन आजकल के बाबा लोग ही नहीं बल्कि ओशो जैसे तथाकथित क्रांतिकारी भी पतंजलीसे विश्वासघात करते हुए वेदान्तिक ब्रह्म को योग के ईश्वर से मिलाकर लोगों को कन्फ्यूज करते हैं. खैर, तो अंतिम रूप से योग भी जिस कैवल्य में फलित होता है वहां ईश्वर या आत्मा इत्यादि कुछ नहीं है, वह फलित जैनों के कैवल्य से मिलता जुलता है और जैन न सिर्फ नास्तिक हैं बल्कि श्रमण है. इसके बावजूद चूँकि योगदर्शन वैदिक प्रतीकों और भाषा का इस्तेमाल करते हुए वेदों की सत्ता को स्वीकार करता है इसलिए वह आस्तिक दर्शन कहलाता है.
इस छोटी सी भूमिका के बाद अब हम स्वामी बालेन्दु जी के नेतृत्व में उठ खड़े हुए इस आन्दोलन के प्रति वेद वेदान्त और योग के रसिकों के मन की उभर रही असुरक्षा को समझ सकते हैं. यहाँ यह भी ध्यान देना होगा कि स्वामी बालेन्दु न सिर्फ भारतीय अर्थ की आस्तिकता पर प्रश्न उठा रहे हैं बल्कि सेमेटिक धर्म मानने वाले देशों की आस्तिकता (बिलीफ, फैथ या ईमान) को भी निशाने पर ले रहे हैं. इस प्रकार स्वामी बालेन्दु जी की नास्तिकता की प्रस्तावना दोहरा वार कर रही है. इसीलिये वे हिन्दुओं सहित ईसाईयों और मुसलमानों कि निंदा के पात्र भी बन गये हैं. भारतीय हिन्दुओं के मन में बसी वेदों / भगवान के प्रति निष्ठा और भारतीय मुसलमानों ईसाईयों आदि के मन में बसी अल्लाह या गॉड के प्रति निष्ठा – दोनों को वे एकसाथ कठघरे में खड़ा कर रहे हैं और बहुत तार्किक रूप से आस्तिकता या विश्वास के इन माँडलों पर वैध प्रश्न उठा रहे हैं. उनके प्रश्नों कि भूमि प्राकृतिक नैतिकता, कामन सेन्स, नागरिकता बोध और वैज्ञानिक रुझान से मिलकर बनी है, इसीलिये उनकी प्रस्तावनाओं में विकसित और मुखर सामाजिक सरोकारों की गूंज होती है जिसे उनकी हर टिप्पणी, वक्तव्य और लेख में सुना जा सकता है.
लेकिन इतने अच्छे संकल्प से की जा रही इतनी सुन्दर पहल से किसी को क्या समस्या हो सकती है? क्या काल्पनिक ईश्वर और हजारों वर्ष पुरानी तिथिबाह्य हो चुकी किताबों को चुनौती देते हुए वैज्ञानिक चेतना के साथ जीने का आग्रह करने में किसको खतरा हो सकता है? असल में यही प्रश्न विचारणीय है. आस्तिकता या नास्तिकता में क्या ठीक और हितकर है यह कोई चर्चा का मुद्दा नहीं है, सभी लोग जो थोड़े से शिक्षित या जागरूक हैं वे नास्तिकता और वैज्ञानिक रुझान के फायदों को बखूबी समझते हैं. इसलिए असल मुद्दा यह है कि आस्तिकता की रक्षा में लट्ठ भांजने वालों के मन की असुरक्षा का विश्लेषण कैसे किया जाए.
इसे एक दुसरे मुद्दे से जोड़कर देखते हैं तब आसानी होगी. क्योंकि नास्तिकता (बे-ईमान या नॉन-बिलीवर या वेद-विरोधी होने के अर्थ में) जिस तरह पहले खतरनाक समझी गयी है वैसा ही और उतना ही खतरा उससे आज नहीं है. आज उससे जो और जितना खतरा है वह संपूर्ण और निर्णायक खतरा है. आज पूरे विश्व में आस्तिकता और धर्म को एक बहुत नए ढंग की चुनौती मिल रही है जो पहले कभी नहीं मिली है. यह चुनौती क्या है और इसकी प्रष्ठभूमि क्या है इसे समझना जरुरी है, आइये इसमें प्रवेश करते हैं.
असल में पश्चिमी समाज में वैज्ञानिक विकास ने जिस पुनर्जागरण को संभव बनाया है और उसके नतीजे में जो औद्योगिक और सामाजिक विकास हुआ उसने ईश्वर को एक सृष्टा और नियामक के रूप में अपने पद से सदियों पहले हटा दिया है. वहां अब ईश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है बल्कि ईश्वर का स्थान विज्ञान ने ले लिया और चर्च का स्थान विश्वविद्यालयों ने ले लिया है. लेकिन पूर्वी समाजों का दुर्भाग्य ये रहा कि यहाँ धर्म सत्ता इतनी शक्तिशाली और सर्वव्यापी रही कि यहाँ धर्म, दर्शन और विज्ञान में विभाजन ही पैदा नहीं होने दिया. यहाँ धर्म ही दर्शन और विज्ञान तक का स्त्रोत बन बैठा और इसी क्रम में आस्था और तर्क में असंभव मेल बैठाते बैठाते खुद पाखंडी हो गया. पश्चिम में कम से कम धर्म, दर्शनशास्त्र और विज्ञान अपने अपने क्षेत्रों में दावे से कुछ इमानदार घोषणा करते रहे हैं. वहां भारत जैसा गोल मोल पाखण्ड नहीं जन्मा क्योंकि इन तीनों के विभाजन और उनके विषयों के संगत विस्तारों का अंतर स्पष्ट रहा है.
लेकिन भारत में शुरू से ही धर्म ने सारा कार्यभार अपने कन्धों पर उठा रखा है और तीन मुंह वाले ब्रह्मा की तरह एक मुंह से धर्म, दुसरे से दर्शन और तीसरे से विज्ञान कहना पड़ता है. इसीलिये भारतीय लोग न धर्म सीख पाते हैं न दर्शन न ही विज्ञान, भारतीय समाज में एक आम आदमी के जीवन में ये तीनों ही गायब हैं. भारतीय लोग इन तीन मुंहों को देखकर बस कन्फ्यूज ही होते रहते हैं कुछ भी निर्णय नहीं ले पाते. इसीलिये भारत धार्मिक, दार्शनिक और वैज्ञानिक रूप से जहां का तहां बना रहता है. इसी से कुछ लोगों को ग़लतफ़हमी हो जाती है कि ‘हम कभी मिटाए नहीं जा सके’, वे कहते हैं कि “कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी” लेकिन गौर से देखें तो असल में यह ऐतिहासिक जड़ता भर है,अजर अमर हस्ती जैसा कुछ नहीं है. इसी को अधिकाँश लोग सनातन होना कहते हैं – हजारों साल से जो थे वही आज भी हैं. इसपर भी तुर्रा ये कि इस बात पर जिन्हें शोक मनाना चाहिए वही इसमें गर्व का अनुभव करते हैं.
अब आगे बढ़ते हुए विज्ञान और औद्योगीकरण सहित भूमंडलीकरण पर सवार होकर सब तरह के अच्छे बुरे विचारों – गीत संगीत, वेशभूषा,भोजन, शिक्षा, चिकित्सा इत्यादि - ने अब दुनिया भर में हमला बोल दिया है. ऐसे में आत्मरक्षण और अस्मिता का प्रश्न भयानक रूप से पीडादायी हो गया है. आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता ने जिस तरह से सर्वसमावेशवाद,बहुसंस्कृतिवाद और अन्तः संस्कृतिवाद आदि को जन्म दिया है उसकी प्रतिक्रिया ने प्राचीन धर्मों और संस्कृतियों में अस्मिता की खोज और अस्मिता के परिभाषण सहित अतीत में मनचाही अस्मिताओं को प्रक्षेपित और आरोपित करने तक के आन्दोलन छेड़ दिए हैं. यह आवश्यकता एक विराट गर्भ बन गयी है जिसमे से दुनिया की हर प्रमुख संस्कृति में सांस्कृतिक पुनर्परिभाषण,सांस्कृतिक पुनरुत्थान और अपने धर्म की खोज के वैश्विक और स्थानीय आन्दोलन पैदा हो गये हैं.
इसी गर्भ से कई रंग के आतंकवाद और राष्ट्रवाद जुडवा भाइयों की तरह एकसाथ निकल रहे हैं. यह वैश्विक स्तर पर पहले कभी इतने बड़े पैमाने पर नहीं हुआ है. इसीलिये आज की आस्तिकता और नास्तिकता प्राचीन अर्थ की आस्तिकता या नास्तिकता की स्वाभाविक संगिनी की तरह नहीं देखी जानी चाहिए. आज की आस्तिकता और नास्तिकता – दोनों ही एक कई अर्थों में वैश्विक और निर्णायक बन गयीं हैं. अब सभी तरह की धार्मिक और सांस्कृतिक अस्मिताएं –अवश्यंभावी हो चुके वैश्विक संस्कृति में विलय के पूर्व - आत्मरक्षण की अपनी अंतिम लड़ाई लड़ रही हैं. और जैसा कि अमर्त्य सेन ने अपनी किताब “अस्मिता और हिंसा” में नोट किया है, “यह अस्मिता केवल गर्व और ख़ुशी का ही स्त्रोत नहीं है बल्कि ताकत और आत्मविश्वास का स्त्रोत भी हो सकती है”यही ताकत और आत्मविश्वास न सिर्फ एक आरोपित महानता को अपने धार्मिक-सांस्कृतिक अतीत (इतिहास नहीं) में प्रक्षेपित कर रहा है बल्कि इस आरोपित महानता पर प्रश्न उठाने वालों पर आक्रामक होकर हमले भी कर रहा है. भारत में आज तर्कवादियों या नास्तिकों पर जो हमला हो रहा है वह यही हमला है.
अब हम आते हैं नास्तिकता पर हो रहे हमले के विश्लेषण पर. भारत में पिछले कुछ दशकों में धर्म के निर्माण और रक्षा की एक ख़ास प्रवृत्ति उभरती रही है. असल में देखा जाए तो यह प्रवृत्ति अंग्रेजी शासन के समय जन्मी थी जबकि भारतीय बुद्धिजीवियों को पश्चिम के सभ्य समाज से संबंधित होने का पहला मौक़ा मिला था. निश्चित ही उपनिवेशी नियंत्रण और दमन खतरनाक था और निंदनीय है, लेकिन उसने भारत के पुरातनपंथी और अन्धविश्वासी समाज को पश्चिमी ज्ञान विज्ञान और विकसित सामाजिक रचना का पाठ भी पढ़ाया था. इसी कारण तिलक, पाल, और राममोहन रॉयसहित अनेक तत्कालीन बुद्धिजीवियों ने आर्य आक्रमण थ्योरी को लपक लिया था और अंग्रेजी आक्रमण को भारत को सभ्य बनाने वाली ईश्वरीय योजना का एक भाग मान लिया था,राममोहन रॉय ने तो ब्रिटेन में घोषणा भी की थी कि भारतीय आर्य अपने पुराने यूरोपीय आर्य भाइयों से अरसे बाद दुबारा मिल रहे हैं. इस ऐतिहासिक भरत मिलाप का उन्होंने खासा उत्सव मनाया था.
यहाँ एक और दिशा से गौर करें तो इसाइयत के सेवाभावी और मिशनरी स्वरूप और पश्चिमी समाज की विकसित और तुलनात्मक रूप से नैतिक संरचना ने भारतीय बुद्धिजीवियों को खासा प्रभावित किया था. विशेष रूप से स्वामी विवेकानन्द ने अपनी अमेरिका और यूरोप यात्राओं से जिस तरह का इसाई धर्म और सेवाभाव सीखा उसी के आधार पर इस नियो-हिन्दुइज्म या नियो-वेदांता की नींव रखी गयी,याद कीजिये स्वामी विवेकानंद ने भारत लौटते ही सिस्टर निवेदिता के साथ रामकृष्ण “मिशन”आरम्भ किया था. मिशनरी इसाइयत से प्रेरित इस नये “मिशन” के आगे या पीछे राममोहन रॉय, केशवचंद्र, देवेन्द्रनाथ, रानाडे, दयानन्द सरस्वती जैसे अन्य सुधारक भी हुए. इस दौर के भारतीय सिद्धान्तकारों ने जिस एक नियो-हिन्दुइज्म को पैदा किया वही आजकल भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को संचालित कर रहा है.
यह नियो हिन्दुइज्म या नियो वेदांत संभवतः दुनिया का सबसे नया और सबसे असुरक्षित धर्म है जिसके पास एक भगवान् एक किताब या एक महापुरुष नहीं है और जो अपने रक्षण या विकास के लिए एक फ्रेम या एक मार्ग परिभाषित करने में भयानक रूप से असमर्थ है. इसीलिये इसकी असुरक्षाएं अजीबो गरीब ढंग से काम करती हैं. एक तरफ यह अपनी ही बड़ी आबादी को अपने धर्मग्रंथों और धर्मस्थलों का उपयोग करने से रोकता है और दुसरी तरफ इन ग्रंथों और स्थलों से दूर जाने पर दंड भी देता है. अपनी ही स्त्रियों को धर्म कि खोल में बांधे रखता है और उन्ही स्त्रियों द्वारा देवता या मंदिर के स्पर्श से डर भी जाता है. यह भयानक रूप से विरोधाभासी और दिशाहीन स्थिति है जिसे सिर्फ अन्धविश्वासी सम्मोहनों और हिंसा के भय से ही नियन्त्रण में रखा जा सकता है. यह भय और दंड ही असल में इस नवीन रचना का प्राण है. इस भय को तार्किक विश्लेषण से उजागर करना इस रचना के लिए बहुत पीडादायी है. इस आंतरिक भय और इस पीड़ा को न केवल आधुनिक सिर्फ धर्माधीश और बुद्धिजीवी जानते समझते रहे हैं बल्कि आधुनिक सांस्कृतिक और राजनीतिक संगठन भी इसी पीड़ा के गर्भ से जन्मे हैं. इसीलिये अब इनकी सम्मिलित शक्ति ने एक राजनीतिक आन्दोलन को गठित किया है जो अनजाने अतीत में मनचाही श्रेष्ठताओं का प्रक्षेपण करते हुए इस प्रक्षेपण पर उठने वाले सवालों का दमन कर रहा है. गौर से देखा जाए तो स्वामी बालेन्दु के नास्तिक आन्दोलन पर जो आक्रमण हो रहा है या अन्य तार्किकों,अन्धविश्वास विरोधियों, पाखंड-विरोधियों का जो दमन हो रहा वह इसी दमन का जीता जागता उदाहरण है.

गुरुवार, 22 सितंबर 2016

देखिये यह होता है जन आन्दोलन का असर !

देखिये यह होता है जन आन्दोलन का असर !
समाचार मिल रहा है कि गुजरात में चल रहे दलित आन्दोलन के प्रभाव से गुजरात के १६ जिलों में एस सी /एस टी एक्ट के मामलों के लिए विशेष अदालतों का गठन किया जा रहा है. इससे पहले ससौदा गाँव के २०० से अधिक दलित परिवारों को दो दिन पहले भूमि का कब्ज़ा देना शुरू कर दिया गया है जब कि इसके लिए दलित २००६ से आन्दोलन तथा न्यायालय से गुहार लगा रहे थे.
परन्तु दुर्भाग्य से दलित राजनीतिक पार्टियों के नेता जनांदोलन से डरते हैं क्योंकि जनांदोलन से नये नेता पैदा होते हैं जिन से इन नेताओं को खतरा महसूस होता है. दूसरा जनांदोलन का रास्ता संघर्ष का रास्ता होता है जिस में पुलिस की लाठी, गोली झेलना तथा जेल जाना पड़ता है. परन्तु दलित नेता जाति की राजनीति का आसान रास्ता अपनाते हैं.
१९९५ में जब मैंने कांशी राम जी से यह सवाल पूछा कि आप की पार्टी किसी दलित मुद्दे को लेकर जनांदोलन क्यों नहीं करती जिसमें आन्दोलनकारी पुलिस की लाठी गोली खा कर तथा जेल जा कर मज़बूत होते हैं और उनकी उस मुद्दे के प्रति प्रतिबद्धता बढ़ती है तो उन्होंने कहा था कि दलित बहुत कमज़ोर लोग हैं और वे पुलिस का डंडा नहीं झेल पायेंगे. इस पर मैंने कहा था कि मैं पुलिस वाला हूँ और जनता हूँ कि जब तक वे जनांदोलन में पुलिस का लाठी डंडा नहीं खायेंगे कमज़ोर ही बने रहेंगे. इसी लिए इस कमजोरी का असर उक्त पार्टी पर स्पष्ट दिखाई देता है.
दरअसल जनांदोलन से परहेज़ के पीछे दलित नेताओं का एक तो अपने आप को संघर्ष के कठिन रास्ते से बचाना है दूसरे इसमें किसी नेतृत्व को न उभरने देना है. इसके इलावा उनका इरादा दलितों को कमज़ोर और डरपोक बना कर केवल अपने ऊपर आश्रित रखना होता है जैसा कि दूसरी पार्टियों के नेता भी करते आये हैं.
परन्तु गुजरात के वर्तमान दलित आन्दोलन ने दलित नेताओं की इन नीतियों और अवधारणाओं को गलत सिद्ध कर दिया है. इसने यह दिखा दिया है कि जनांदोलन की ताकत ही सरकार को दलित समस्यायों का समाधान निकालने के लिए बाध्य कर सकती है. दूसरे जन आन्दोलन से कार्यकर्त्ता मज़बूत होते हैं और नया नेतृत्व उभरता है. इसने यह भी दिखा दिया है कि दलित न तो कमज़ोर और बुजदिल हैं और न ही नेताओं पर ही निर्भर हैं. वे अपनी लड़ाई खुद भी लड़ सकते हैं.
बाबासाहेब ने तो बहुत स्पष्ट तौर पर कहा था, "सदियों से छिने हुए अधिकार जालिमों की सदिच्छा को अपील करने से नहीं मिला करते. उन्हें तो सतत संघर्ष करके छीनना पड़ता है."
बाबासाहेब के सर्वप्रिय नारे "शिक्षित करो , संघर्ष करो और संघठित करो" में तो जनांदोलन के माध्यम से ही संगठित करने का आदेश है. मेरे विचार में अब दलितों को नेताओं का मुंह ताकना छोड़ कर अपने उद्दों के लिए स्वयम जनांदोलन का रास्ता अपनाना चाहिए जैसा कि गुजरात के दलितों ने अपनाया है.
इसके साथ ही हमें लेनिन की यह बात भी याद रखनी चाहिए कि "क्रांतिकारी विचार के बिना कभी क्रांति नहीं हो सकती." इसी लिए दलितों को क्रांति करने के लिए, जिसके बिना उनका उद्धार नहीं हो सकता, क्रांतिकारी विचार ग्रहण करना चाहिए. बाबासाहेब ने हमें व्यवस्था परिवर्तन और संघर्ष का क्रांतिकारी विचार दिया है. इसके इलावा दलितों को अन्य क्रन्तिकारियों से भी क्रांतिकारी विचार ग्रहण करने चाहिए. मेरा यह भी सुझाव है कि हरेक दलित को भगत सिंह का "अछूत समस्या" पर लेख http://dalitmukti.blogspot.in/…/achoot-samasya-bhagat-singh… ज़रूर पढ़ना चाहिए.

बुधवार, 7 सितंबर 2016

दलित एवं आदिवासी तथा भूमि का प्रश्न



दलित एवं आदिवासी तथा भूमि का प्रश्न

-एस. आर. दारापुरी, भूतपूर्व पुलिस महानिरीक्षक एवं राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट

 भारत एक गाँव प्रधान देश है. 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 6,40,867 गाँव हैं. इसी जनगणना के अनुसार भारत की कुल आबादी 121 करोड़ में से 83.3 करोड़ देहात क्षेत्र में और केवल 37.7 करोड़ शहरी आबादी है. इस प्रकार आबादी का लगभग 70% हिस्सा ग्रामीण क्षेत्र में और 30% हिस्सा शहरी क्षेत्र में आवासित है.  देश की आबादी के कुल 24.39 करोड़ परिवारों में से 17.92 करोड़ परिवार ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं जिन में से 3.31 करोड़ अनुसूचित जाति (दलित) तथा 1.96 करोड़ अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) ग्रामीण क्षेत्र में हैं. भारत में दलितों की जनसंख्या 20.14 करोड़ है जो देश की कुल जनसंख्या का 16.6% है. आदिवासियों की जनसंख्या 10.42 करोड़ है जो देश की कुल जनसंख्या का 8.6% है.

 सामाजिक-आर्थिक एवं जाति जनगणना -2011 के आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण भारत में 56% परिवार भूमिहीन हैं जिन में से लगभग 73% दलित तथा 79%  आदिवासी परिवार हैं. ग्रामीण दलित परिवारों में से 45% तथा आदिवासियों में से 30% परिवार केवल हाथ की मजदूरी करते हैं. इसी प्रकार ग्रामीण दलित परिवारों में से 18.35% तथा आदिवासी परिवारों में 38% खेतिहर हैं. इस जनगणना से एक यह बात भी उभर कर आई है कि हमारी जनसंख्या का केवल 40% हिस्सा ही नियमित रोज़गार में है और शेष 60% हिस्सा अनियमित रोज़गार में है जिस कारण वे अधिक समय रोज़गारविहीन रहते हैं.

उपरोक्त आंकड़ों से दलितों तथा आदिवासियों के सम्बन्ध में कुछ महत्वपूर्ण बातें उभर कर आती हैं. एक तो यह है कि ग्रामीण दलित परिवारों का लगभग 73% तथा आदिवासी  परिवारों का 79% हिस्सा हाथ की मजदूरी पर निर्भर हैं. दूसरे अधिकतर दलित एवं आदिवासी परिवार वंचित हैं. तीसरे उनके पास अपना उत्पादन का कोई साधन जैसे ज़मीन आदि नहीं है तथा कोई अन्य हुनर न होने के कारण वे अधिकतर केवल हाथ की मजदूरी पर निर्भर हैं. वे अधिकतर भूमिहीन हैं तथा बहुत थोड़े परिवार खेतिहर हैं. इस प्रकार अधिकतर दलित एवं आदिवासी परिवार कृषि मजदूर हैं जिसके लिए वे उच्च जातियों के भूमिधारकों पर निर्भर हैं. इतना ही नहीं वे अपने जानवरों के लिए घास पट्ठा तथा टट्टी पेशाब के लिए भी उन्हीं पर निर्भर हैं. उनके पास ज़मीन न होने तथा खेती में मौसमी सीमित रोज़गार होने के कारण उन्हें अधिक समय तक बेरोज़गारी का सामना करना पड़ता है.

यह भी सर्वविदित है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है और इसकी लगभग 60% आबादी कृषि से खेतिहर तथा  खेतिहर मजदूर के तौर पर जुड़ी हुई है. उपरोक्त आंकड़ों से यह भी स्पष्ट है कि अधिकतर दलित एवं  आदिवासी भूमिहीन हैं और वे केवल हाथ की मजदूरी ही कर सकते हैं. भूमिहीनता और केवल हाथ की मजदूरी उनकी सब से बड़ी दुर्बलताएं हैं. इनके कारण न तो वे जातिभेद और छुआछूत के कारण अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों का मजबूती से सामना कर पाते हैं और न ही मजदूरी के सवाल पर सही ताकत से लड़ाई. क्योंकि खेती में रोज़गार केवल मौसमी होता है अतः उन्हें शेष समय मजदूरी के लिए रोजगार अन्यत्र खोजना पड़ता है या फिर बेरोजगार रहना पड़ता है. इसी कारण ग्रामीण क्षेत्र में 73% दलित तथा 79% आदिवासी परिवार वंचित एवं भूमिहीन हैं.

ग्रामीण क्षेत्र में यह भी एक यथार्थ है कि भूमि न केवल उत्पादन का साधन है बल्कि यह सम्मान और सामाजिक दर्जे का भी प्रतीक है. गाँव में जिस के पास ज़मीन है वह न केवल आर्थिक तौर पर मज़बूत है बल्कि सामाजिक तौर पर भी सम्मानित है. अब चूँकि अधिकतर दलितों के पास न तो ज़मीन है और न ही नियमित रोज़गार, अतः वे न तो सामाजिक तौर पर सम्मानित हैं और न ही आर्थिक तौर पर मज़बूत. ग्रामीण क्षेत्र में दलित तभी सशक्त हो सकते हैं जब उन के पास ज़मीन आये और उन्हें नियमित रोज़गार मिले. अतः भूमि वितरण और सुरक्षित रोज़गार की उपलब्धता दलितों और आदिवासियों तथा अन्य भूमिहीनों की प्रथम ज़रूरत है. 

भारत के स्वतंत्र होने पर देश में संसाधनों के पुनर्वितरण हेतु ज़मींदारी व्यवस्था समाप्त करके भूमि सुधार लागू किये गए थे. इस द्वारा देश में व्याप्त भूमि सीमारोपण कानून बनाये गए थे जिस से भूमिहीनों को आवंटन के लिए भूमि उपलब्ध करायी जानी थी. परन्तु इन कानूनों को लागू करने में बहुत बेईमानी की गयी क्योंकि उस समय सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस में अधिकतर नेता पुराने ज़मीदार ही थे और प्रशासन में भी इसी वर्ग का बर्चस्व था. इसी लिए एक तो इन कानूनों से बहुत कम ज़मीन निकली और जो निकली भी उसका भूमिहीनों को वितरण नहीं किया गया. परिणामस्वरूप इन कानूनों को लागू करने से पहले जिन लोगों के पास उक्त ज़मीन थी वह उनके पास ही बनी रही. आज भी विभिन्न राज्यों में बेनामी और ट्रस्टों व मंदिरों के नाम हजारों हजारों एकड़ ज़मीन बनी हुई है. इसी का परिणाम है कि आज देश में 18.53% लघु एवं 64.77% सीमांत जोत के किसान हैं जिन के पास कुल जोत क्षेत्र का केवल 41.52% हिस्सा है. शेष 59% क्षेत्रफल पर 17% मध्यम एवं बड़े किसानों का कब्ज़ा है.

सामाजिक-आर्थिक एवं जाति जनगणना के आंकड़ों के विश्लेषण से स्पष्ट है ग्रामीण क्षेत्र के दलितों एवं आदिवासियों के लिए भूमि का प्रश्न सब से महत्वपूर्ण प्रश्न है जिसे भूमि सुधारों को सही ढंग से लागू किये बिना हल करना संभव नहीं है. परन्तु यह बहुत बड़ी बिडम्बना है कि भूमि सुधार और भूमि वितरण किसी भी दलित अथवा गैर दलित पार्टी के एजंडे पर नहीं है. अतः दलितों एवं आदिवासियों का तब तक सशक्तिकरण संभव नहीं है जब तक उन्हें भूमि वितरण द्वारा भूमि उपलब्ध नहीं कराई जाती. यह देखा गया है कि जिन राज्यों जैसे पच्छिमी बंगाल और केरल में भूमि सुधार लागू करके दलितों को भूमि उपलब्ध करायी गयी थी वहां पर उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में बहुत सुधार हुआ है.  

यह ज्ञातव्य है कि उत्तर प्रदेश में  1995 से लेकर 2012 तक मायावती चार बार मुख्य मंत्री रही है. उसके शासन काल में केवल 1995 में उत्तर प्रदेश के मध्य तथा पच्छिमी क्षेत्र को छोड़ कर शेष भागों में कोई भी भूमि आवंटन नहीं किया गया. पूर्वी उत्तर प्रदेश जहाँ दलितों की सब से घनी आबादी है, में तो गोरखपुर को छोड़ कर कहीं भी भूमि आवंटन नहीं हुआ. ऐसा नहीं है कि उत्तर प्रदेश में आवंटन के लिए भूमि उपलब्ध नहीं थी. 1995 में उत्तर प्रदेश में सीलिंग की अतिरिक्त भूमि, ग्राम समाज तथा भूदान की इतनी भूमि उपलब्ध थी कि उससे  न केवल दलित बल्कि अन्य जातियों के भूमिहीनों को भी गुज़ारे लायक भूमि मिल सकती थी परन्तु मायावती ने उसका आवंटन नहीं किया. इतना ही नहीं जो आवंटन किया भी गया या जो भूमि पूर्व में आवंटित थी उसके कब्ज़े दिलाने के लिए भी कोई कार्रवाही नहीं की. 1995 के बाद तो फिर सर्वजन की राजनीति के चक्कर में न तो कोई आवंटन किया गया और न ही कोई कब्ज़ा ही दिलवाया गया. 2001 की जनगणना से यह एक बात उभर कर आई थी कि 1991-2001 के दशक में उत्तर प्रदेश के 23% दलित भूमिधारक से भूमिहीन की श्रेणी में आ गये थे. यह विचारणीय है कि इस अवधि में मायावती तीन बार उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री रही थी. 

उत्तर प्रदेश में जब 2002 में मुलायम सिंह यादव की सरकार आई तो उन्होंने राजस्व कानून में संशोधन करके दलितों की भूमि आवंटन की वरीयता को ही बदल दिया और उसे अन्य भूमिहीन वर्गों के साथ जोड़ दिया. उनकी सरकार में भूमि आवंटन तो हुआ परन्तु ज़मीन दलितों को न दे कर अन्य जातियों को दे दी गयी. इसके साथ ही उन्होंने कानून में संशोधन करके दलितों की ज़मीन को गैर दलितों द्वारा ख़रीदे जाने वाले प्रतिबंध को भी हटा दिया. उस समय तो यह कानूनी संशोधन टल गया था परन्तु अब उन्होंने इसे विधिवत कानून का रूप दे दिया है. इस प्रकार मायावती द्वारा दलितों को भूमि आवंटन न करने, मुलायम सिंह द्वारा कानून में दलितों की भूमि आवंटन की वरीयता को समाप्त करने के कारण उत्तर प्रदेश के दलितों को भूमि आवंटन नहीं हो सका और ग्रामीण क्षेत्र में उनकी स्थिति अति दयनीय बनी हुई है. 

आदिवासियों के सशक्तिकरण हेतु वनाधिकार कानून- 2006 तथा नियमावली 2008 में लागू हुई थी. इस कानून के अंतर्गत सुरक्षित जंगल क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों तथा गैर आदिवासियों को उनके कब्ज़े की आवासीय तथा कृषि भूमि का पट्टा दिया जाना था. इस सम्बन्ध में आदिवासियों द्वारा अपने दावे प्रस्तुत किये जाने थे. उस समय उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार थी परन्तु उसकी सरकार ने इस दिशा में कोई भी प्रभावी कार्रवाही नहीं की जिस का नतीजा यह हुआ कि 30.1.2012 को उत्तर प्रदेश में आदिवासियों द्वारा प्रस्तुत कुल 92,406 दावों में से 74,701 दावे अर्थात 80 % दावे रद्द कर दिए गए और केवल 17,705 अर्थात केवल 19% दावे स्वीकार किये गए तथा कुल 1,39,777 एकड़ भूमि आवंटित की गयी.

 मायावती सरकार की आदिवासियों को भूमि आवंटन में लापरवाही और दलित/आदिवासी विरोधी मानसिकता को देख कर आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दाखिल की थी जिस पर उच्च न्यायालय ने अगस्त, 2013 में राज्य सरकार को वनाधिकार कानून के अंतर्गत दावों को पुनः सुन कर तेज़ी से निस्तारित करने के आदेश दिए थे परन्तु उस पर भी कोई ध्यान नहीं दिया गया. इस प्रकार मायावती तथा अखिलेश सरकार की लापरवाही तथा दलित/आदिवासी विरोधी मानसिकता के कारण 80 % दावे रद्द कर दिए गए. उत्तर प्रदेश सरकार ने यह भी दिखाया है की सरकारी स्तर पर कोई भी दावा लंबित नहीं है. इसी प्रकार दिनांक 30.04.2016 तक राष्ट्रीय स्तर पर कुल 44,23,464 दावों में से 38,57,379 दावों का निस्तारण किया गया जिन में केवल 17,44,274 दावे स्वीकार किये गए तथा कुल 1.03,58,376 एकड़ भूमि आवंटित की गयी जो कि प्रति दावा लगभग 5 एकड़ बैठती है. राष्ट्रीय स्तर पर अस्वीकृत दावों की औसत 53.8 % है जब कि उत्तर प्रदेश में यह 80.15% है. इससे स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश में वनाधिकार कानून को लागू करने में घोर लापरवाही बरती गयी है जिस के लिए मायावती तथा मुलायम सरकार बराबर के ज़िम्मेदार हैं.

अब यदि गुजरात की स्थिति देखी जाये तो यह और भी भयावह है. गुजरात में दिनांक 30.04.2016 तक वनाधिकार कानून के अंतर्गत 1,90,097 दावे प्राप्त हुए थे जिन में से केवल 77.038 दावों को ही स्वीकार किया गया तथा कुल 11,92,351 एकड़ भूमि आवंटित की गयी. इस प्रकार 65% दावे अस्वीकृत कर दिए  गए. इससे स्पष्ट है कि मोदी के गुजरात के विकास माडल में केवल 35% आदिवासियों और वनवासियों को ही भूमि आवंटित की गयी. इसी लिए तो गुजरात दलित आन्दोलन में भूमिहीन दलितों को 5 एकड़ ज़मीन के साथ साथ वनाधिकार कानून के अंतर्गत आदिवासियों और वनवासियों को भूमि आवंटन की मांग भी उठानी पड़ी है.    

दलितों को भूमि आवंटन तथा आदिवासियों के मामले में वनाधिकार कानून को लागू करने में राज्यों तथा केन्द्रीय सरकार द्वारा जो लापरवाही एवं उदासीनता दिखाई गयी है उससे स्पष्ट है सत्ताधारी पार्टियाँ तथा दलित एवं गैर दलित पार्टियाँ नहीं चाहतीं कि दलितों/आदिवासियों का सशक्तिकरण हो. वे सभी दलितों/आदिवासियों  को निर्धन एवं अशक्त रख कर उनका जाति के नाम पर वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करना चाहती हैं. उत्तर प्रदेश इसकी सब से बड़ी उदाहरण है जहाँ चार वार दलित मुख्य मंत्री रही है परन्तु न तो दलितों को भूमि आवंटित की गयी और न ही आदिवासियों को वनाधिकार कानून के अंतर्गत ज़मीन के पट्टे दिए गए जैसा कि उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है. यह भी भारतीय राजनीति का दिवालियापन ही है कि वर्तमान में भूमि सुधार एवं भूमि आवंटन किसी भी पार्टी, चाहे वह दलित हो या गैर दलित, के एजंडे में नहीं हैं. सभी पार्टियाँ केवल जाति समीकरण व सम्प्रदाय की राजनीति करके सत्ता पाने की होड़ में लगी है. उत्तर प्रदेश में 2017 के चुनाव में भी सपा, बसपा, भाजपा और कांग्रेस केवल जाति एवं धर्म के गठजोड़ का ताना बाना बुनने में लगी हैं  परन्तु भूमि सुधार तथा भूमि आवंटन उनके एजंडे में कोई स्थान नहीं रखता है जो कि दलितों, आदिवासियों और अन्य भूमिहीन तबकों के सशक्तिकरण की बुनियादी ज़रुरत है.

अतः जब सरकारों और राजनीतिक पार्टियों का दलितों और आदिवासियों के सशक्तिकरण की बुनियादी ज़रुरत भूमि सुधार तथा भूमि आवंटन के प्रति घोर लापरवाही तथा जानबूझ कर उपेक्षा का रवैया है तो फिर इन वर्गों के सामने जनांदोलन के सिवाय क्या चारा बचता है. इतिहास गवाह है दलितों और आदिवासियों ने इससे पहले भी कई वार भूमि आन्दोलन का रास्ता अपनाया है. 1953 में डॉ. आंबेडकर के निर्देशन में हैदराबाद स्टेट के मराठवाड़ा क्षेत्र में तथा 1958 में महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में दलितों द्वारा भूमि आन्दोलन चलाया गया था. दलितों का सब से बड़ा अखिल भारतीय भूमि आन्दोलन रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया (आरपीआई) के आवाहन पर 6 दिसंबर, 1964 से 10 फरवरी, 1965 तक चलाया गया था जिस में लगभग 3 लाख सत्याग्रही जेल गए थे. यह आन्दोलन इतना ज़बरदस्त था कि तत्कालीन प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री को दलितों की भूमि आवंटन तथा अन्य  मांगे माननी पड़ीं थीं.  इसके फलस्वरूप ही कांग्रेस सरकारों को भूमिहीन दलितों को कुछ भूमि आवंटन करना पड़ा. परन्तु इसके बाद आज तक कोई भी बड़ा भूमि आन्दोलन नहीं हुआ. इतना ज़रूर है कि सत्ता में आने से पहले कांशी राम ने “जो ज़मीन सरकारी है, वह ज़मीन हमारी है” का नारा तो दिया था परन्तु मायावती के कुर्सी पर बैठने पर उसे सर्वजन के चक्कर में पूरी तरह से भुला दिया गया.

दलितों के लिए भूमि के महत्त्व पर डॉ. आंबेडकर ने 23 मार्च, 1956 को आगरा के भाषण में कहा था, ”मैं गाँव में रहने वाले भूमिहीन मजदूरों के लिए काफी चिंतित हूँ. मैं उनके लिए ज्यादा कुछ नहीं कर पाया हूँ. मैं उनके दुःख और तकलीफें सहन नहीं कर पा रहा हूँ. उनकी तबाहियों का मुख्य कारण यह है कि उनके पास ज़मीन नहीं है. इसी लिए वे अत्याचार और अपमान का शिकार होते हैं. वे अपना उत्थान नहीं कर पाएंगे. मैं इनके लिए संघर्ष करूँगा. यदि सरकार इस कार्य में कोई बाधा उत्पन्न करती है तो मैं इन लोगों का नेतृत्व करूँगा और इन की वैधानिक लड़ाई लडूंगा. लेकिन किसी भी हालत में भूमिहीन लोगों को  ज़मीन दिलवाने का प्रयास करूँगा. इस से स्पष्ट है कि बाबासाहेब दलितों के उत्थान के लिए भूमि के महत्व को जानते थे और इसे प्राप्त करने के लिए वे कानून तथा जनांदोलन के रास्ते को अपनाने वाले थे परन्तु वे इसे मूर्त रूप देने के लिए अधिक दिन तक जीवित नहीं रहे.

इस बीच देश के विभिन्न हिस्सों में आदिवासियों द्वारा “भूमि अधिकार आन्दोलन” चलाया जाता रहा है परन्तु दलितों द्वारा कोई भी बड़ा भूमि आन्दोलन नहीं चलाया गया है जिस कारण उन्हें कहीं भी भूमि आवंटन नहीं हुई  है. नक्सलबाड़ी आन्दोलन का मुख्य एजंडा दलितों/आदिवासियों को भूमि दिलाना ही था. दक्षिण भारत के  राज्यों जैसे तमिलनाडू तथा आन्ध्र प्रदेश में “पांच एकड़” भूमि का नारा दिया गया है. हाल में गुजरात दलित आन्दोलन के दौरान भी दलितों को पांच एकड़ भूमि तथा आदिवासियों को वनाधिकार कानून के अंतर्गत ज़मीन देने की मांग उठाई गयी है जो कि दलित राजनीति को जाति के मक्कड़जाल  से बाहर निकालने का काम कर सकती है. यदि इस मांग को अन्य राज्यों में भी अपना कर इसे दलित आन्दोलन और दलित राजनीति के एजंडे में प्रमुख स्थान दिया जाता है तो यह दलितों और आदिवासियों के वास्तविक सशक्तिकरण में बहुत कारगर सिद्ध हो सकता है. अब तो जिन राज्यों में दलितों/आदिवासियों को आवंटन के लिए सरकारी भूमि उपलब्ध नहीं है उसे अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति सब प्लान के बजट से खरीद कर दिया जा सकता है.

अतः अगर दलितों और आदिवासियों का वास्तविक सशक्तिकरण करना है तो वह भूमि सुधारों को कड़ाई से लागू करके तथा भूमिहीनों को भूमि आवंटित करके ही किया जा सकता है. इसके लिए वांछित स्तर की राजनीतिक इच्छा शक्ति की ज़रुरत है जिस का वर्तमान में सर्वथा अभाव है. अतः भूमि सुधारों को लागू कराने  तथा भूमिहीन दलितों/आदिवासियों को भूमि आवंटन कराने के लिए एक मज़बूत भूमि आन्दोलन चलाये जाने की आवश्यकता है. इस आन्दोलन को बसपा जैसी अवसरवादी और केवल जाति की राजनीति करने वाली पार्टी नहीं चला सकती है क्योंकि इसे सभी प्रकार के आंदोलनों से परहेज़ है. आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट ने भूमि सुधार और भूमि आवंटन को अपने एजंडे में प्रमुख स्थान दिया है और इसके लिए अदालत में तथा ज़मीन पर भी लड़ाई लड़ी है. इसी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में वनाधिकार कानून को ईमानदारी से लागू कराने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर करके आदेश भी प्राप्त किया था जिसे मायावती और मुलायम की सरकार ने विफल कर दिया. आइपीएफ़ अब पुनः उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र में भूमि आन्दोलन प्रारंभ करने जा रहा है. अतः आइपीएफ सभी दलित/आदिवासी हितैषी संगठनों और दलित/गैर दलित  राजनीतिक पार्टियों का आवाहन करता है कि वे अगर सहमत हों तो उत्तर प्रदेश के 2017 के चुनाव में भूमि सुधार और भूमि आवंटन को सभी राजनीतिक पार्टियों के एजंडे में शामिल कराने के लिए जन दबाव बनाने में सहयोग दें.

 

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