रविवार, 21 दिसंबर 2014

धर्म परिवर्तन पर रोक क्यों?

धर्म परिवर्तन पर रोक क्यों?
एस.आर. दारापुरी आई.पी.एस. (से.नि.)
वर्तमान में आर.एस.एस. धर्म परिवर्तित हिन्दुओ को घर वापसी के बहाने जबरन हिन्दू बनाने पर तुली हुयी है. पर वे कभी भी ईमानदारी से इस सच्च को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं कि इन लोगों ने हिन्दू धर्म उन के जातिगत अत्याचारों और भेदभाव के कारण ही छोड़ा था और आगे भी छोड़ते रहेंगे. हमारे देश में प्रत्येक नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्राप्त है. वह कोई भी धर्म छोड़ने या धारण करने के लिए पूर्णतया स्वतंत्र है. डॉ. आंबेडकर के अनुसारे धर्म एक कपड़े की तरह है जिसे कभी भी बदला जा सकता है, फैंका जा सकता है. उनकी यह अवधारणा भी बहुत सही है कि धर्म मनुष्य के लिए है न कि मनुष्य धर्म के लिए. डॉ. आंबेडकर का यह भी कहना था कि जो धर्म व्यक्ति को जन्म से नीच बना कर रखे वह धर्म नहीं बलिक गुलाम बनाए कर रखने का षड्यंत्र है.
आर.एस.एस. कानून बना कर धर्म परिवर्तन को इस लिए रोकना चाह रही है क्योकि दलित और निचली जातियों के लोग हिंदुयों के अत्याचार से दुखी होकर हिन्दू धर्म छोड़ रहे हैं जिस से हिंदुयों की आबादी लगातार कम हो रही है. विदेशों में बसे हिंदुयों की बड़ी संख्या भी हिन्दू धर्म छोड़ रही है. हिंदुयों की असली चिंता हिन्दू धर्म नहीं बल्कि उन के धर्म से तेजी से हो रहा पलायन है. वैसे भी इस नरक में कौन नीच बन कर रहना चाहेगा? हिंदुयों की असली चिंता हिन्दू धर्म नहीं बल्कि जाति व्यवस्था से दुखी हो कर इसे छोड़ने के कारण निरंतर घट रही आबादी है.
पिछले 60 वर्षों में डॉ. आंबेडकर के आवाहन पर लाखों लाखों दलितों ने हिन्दू धर्म को छोड़ कर बौद्ध धम्म में अपनी वापसी की है क्योंकि डॉ. आंबेडकर के अनुसार वर्तमान अछूत पूर्व में बौद्ध थे और हिंदुयों ने उन्हें जबरदस्ती  अछूत बनाया था और उन्हें निकृष्ट पेशे करने के लिए बाध्य किया था. अब दलित हिंदुयों द्वारा अपने ऊपर किये गए अत्याचारों से पूरी तरह अवगत हो चुके हैं और वे पुनः हिन्दू धर्म के नरक में जाने के लिए तैयार नहीं हैं. बाबा साहेब ने उन्हें बौद्ध धम्म का मुक्ति मार्ग दिखा दिया है जिस पर वे तेजी से अग्रसर हो रहे हैं.
यह देखा गया है कि जिन जिन राज्यों जैसे अरुणाचल प्रदेश, गुजरात, गोवा, मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में धर्म परिवर्तन सम्बन्धी कानून बना है उस का हिन्दुत्ववादी खुल कर दुरूपयोग करते हैं और उस में उन्हें हिंदुत्व मानसिकता से ग्रस्त प्रशासन का पूरा सहयोग रहता है. इस का सब से ताजा उदाहारण गुजरात है जहाँ कुछ समय पहले मोदी राज में दलितों द्वारा धर्म परिवर्तन समारोह आयोजित करने में प्रशासन द्वारा कितनी बाधाएं पैदा की गयी थीं. अतः धर्म परिवर्तन पर रोक लगाने सम्बन्धी यदि कोई कानून बनता है तो उसका सब से बड़ा खामियाजा दलितों को भुगतना पड़ेगा क्योंकि उन के बौद्ध धम्म आन्दोलन पर भी रोक लग जायेगी. यह भी एक ऐतहासिक सत्य है कि शायद कुछ लोग ही होंगें जिन्होंने दबाव अथवा लालच में धर्म परिवर्तन किया हो. वर्ना सभी लोगों ने स्वेच्छा से धर्म परिवर्तन किया है. यदि यह सत्य भी है तो हिन्दू भी इस का अपवाद नहीं हैं. कौन नहीं जानता कि हिंदुयों ने बौद्धों का कितना कत्ले आम किया है और उन्हें जबरन हिन्दू बनाया है. उन्होंने कितने बौद्ध मंदिरों को जबरन हिन्दू मंदिरों में बदला है जिस के प्रमाण आज भी मौजूद हैं. क्या बद्री नाथ मंदिर, जगन्नाथ मंदिर, तिरुपति मंदिर बुद्ध मंदिर नहीं हैं? दूसरों पर आरोप लगाने से पहले हिदुयों को अपने गिरेवान में झाँक कर देखना चाहिए. बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी.
अतः यह आवश्यक है कि आर.एस.एस. की धर्म परिवर्तन पर कानून बना कर रोक लगाने की मांग का सभी को कड़ा विरोध करना चाहिए और सड़कों पर उतरना चाहिए ताकि धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा हो सके. भारत कोई हिन्दू राष्ट्र नहीं बलिक एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्रं है. हमें यह भी याद रखना चाहिए कि यदि हिन्दू बहुसंख्यक गैर-हिंदुयों पर इसी तरह  से आतंक फैलायेंगे तो इस के गंभीर दुष्परिणाम हो सकते हैं.

बुधवार, 26 नवंबर 2014

कानून और पूर्वाग्रह



कानून और पूर्वाग्रह
एस. आर. दारापुरी आई.पी.एस. (से.नि.)एवं राष्ट्रीय प्रवक्ता आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
भारत की जेलों में आधे से अधिक बंदी कमज़ोर वर्ग की जातियों के हैं जब किअमीर लोग कानून को धत्ता बता कर बच निकलते हैं.
हरेक देश  आधुनिकता और प्रगति का दावा बढ़ा  चढ़ा  कर करता है. फिर भी हरेक देश वर्गों का भद्दा ध्रुवीकरण, समाज के पायदान पर पड़े लोगों का शोषण, धन संपत्ति से वन्चितिकरण, सत्ता और विशेषधिकार की व्यवस्था को मज़बूत करता है. भारत में भी इसी प्रक्रिया के सुदृढ़ीकरण की उदाहरण दी जा रही है. इसी महीने जेलों पर जारी  की गयी सरकारी रिपोर्ट यह दर्शाती है कि दलित, आदिवासी और मुसलमान जो कि समाज का अति पिछड़ा वर्ग हैं  की जेलों में  बंद कैदियों की संख्या आधे  से अधिक है. सब से बड़ी हैरानी की बात यह है कि इन वर्गों की जनसँख्या देश की कुल जनसंख्या  का केवल 39% है जबकि जेलों में इन की जनसंख्या 53% है.
हाल में ही जेलों के बारे में जारी की गयी रिपोर्ट यह दर्शाती है कि हमारी व्यवस्था किस प्रकार विषमतावादी, अमीरों की पक्षधर और गरीबों के विरोध में खड़ी है. उदहारण के लिए 2013 में भारत की  जेलों में 4.2 लाख बंदी थे. इन में से 20% मुसलमान थे जब कि 2001 की जनगणना के अनुसार इन की आबादी देश की कुल आबादी का केवल 13% थी. दलितों की 17% आबादी के विरुद्ध जेलों में उन की संख्या 22% और आदिवासियों की 9% आबादी के विरुद्ध 11% थी.
अब तक हम सब लोग भली भांति अवगत हो चुके  हैं कि मुसलामानों को आतंक के मामलों में कैसे झूठा फंसाया जाता है. इन लोगों को बहुत देर के बाद न्याय मिल पाता है. जेल में लम्बे समय तक बंद रह कर छूटने और जीवन भर के लिए कलंकित हो जाने के कारण बीती ज़िन्दगी  को वापस लाना असंभव हो जाता है. हमारे वर्ग विभाजित समाज में गरीब लोगों को शिकार बनाना बहुत आसान है. इस भेदभाव वाली संस्कृति की व्ययस्था में अमीर और प्रभावशाली लोगों के लिए कानून से बच निकलना बहुत आसान है चाहे उन का अपराध कितना भी संगीन क्यों न हो. दागी मंत्री (केन्द्रीय मंत्री निहाल चाँद मेघवाल और राज्य सभा के उपसभापति कुरियन) संगीन आपराध के आरोपी होने के बावजूद भी अपने सत्ता के पदों पर विराजमान हैं. इसी प्रकार की नर्मी फंड का भारी अपव्यय करने और बड़े बड़े घोटालों के आरोपियों के मामलों में भी देखी जा सकती है. अक्सर सत्ता और विशेषाधिकार कानून के राज से ऊपर दिखाई देते  हैं जब कि यह केवल गरीबों पर ही लागू होता दिखाई देता है.
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो द्वारा जेलों के बारे में 1995 से और 1999 से जातिवार जारी किये जा रहे आंकड़ों से यह देखा जा सकता है कि पिछले पंद्रह साल से दलित, मुस्लिम और आदिवासी कैदियों  की संख्या में कोई कमी नहीं आई है. साफ़ तौर पर यह हमारी व्यवस्था में जाति, साम्प्रदाय और वर्ग आधारित पूर्वाग्रह का ही परिणाम है. वे कानून को सामान रूप से लागू  करने में बहुत बड़ी बाधा हैं.
 इस बात में ही कुछ सांत्वना मिलती है कि केवल भारत ही ऐसा देश नहीं है जहाँ पर कानून व्यवस्था जाति, वर्ग और धर्म के पूर्वाग्रहों से प्रभावित होती है. अमेरिका जैसे विकसित देश की जेलों में भी रंगभेद का पूर्वाग्रह  काले और गोरे कैदियों की संख्या के अनुपात में स्पष्ट दिखाई देता है. नैशनल असोसिएशन फार प्रोटेक्शन आफ दी कलर्ड पीपुल्स द्वारा जारी  आंकड़े बताते हैं कि जेलों में बंद कुल 20.30 लाख लोगों में 10 लाख अफ्रीकन-अमेरिकन हैं जो कि गोरों की अपेक्षा 6 गुना अधिक हैं. इतना ही नहीं है. कहा जाता है कि अमेरिका में लगभग 1.40 करोड़ गोरे  और 2.60 करोड़ काले अवैध ड्रग्स का सेवन करते हैं. दूसरे शब्दों में काले लोगों के मुकाबले में 5 गुणा अधिक गोरे ड्रग्स का इस्तेमाल करते हैं परन्तु अवैध ड्रग इस्तेमाल करने के अपराध में जेल भेजे जाने वाले काले लोगों की दर गोरे  लोगों की दर से 10 गुना अधिक है.     

शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

भाजपा द्वारा दलितों का ब्राह्मणीकरण



भाजपा द्वारा  दलितों का ब्राह्मणीकरण
एस.आर.दारापुरी आई. पी.एस. (से.नि.) तथा राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट  
पिछले लोकसभा चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने कई दलित नेताओं जैसे राम विलास  पासवान और रामदास अठावले के साथ गठजोड़ किया था. उस ने उदित राज को अपनी पार्टी में शामिल करके दलितों में अपनी घुस पैठ बढ़ाई थी. चुनाव प्रणाम से सिद्ध हुआ कि इस में उसे आशातीत सफलता मिली थी. उत्तर प्रदेश में तो वह सभी 1आरक्षित सीटें जीत गयी थी. इस से प्रोत्साहित होकर और वर्तमान उपचुनावों के मद्देनज़र उस ने दलितों को आकर्षित करने का अभियान तेज़ कर दिया है. इस हेतु उस ने कई रणनीतियां अपनाई हैं. पहली रणनीति उनकी हिन्दू पहचान को उभारने की है और उन्हें बड़े हिन्दू समूह का हिस्सा बनाने की है. इस के लिए उसने राजनीति के संप्रदायीकरण की प्रक्रिया के अंतर्गत दलितों को मुसलामानों से लड़ाने की नीति अपनाई है. उस ने दलितों के मुसलामानों के साथ सामान्य विवादों को हिन्दू मुस्लिम झगड़े का रंग देने का काम किया है. उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद हिन्दू मुस्लिम टकराव की घटनाओं में से लगभग 70 घटनाएँ दलित मुस्लिम टकराव की थीं. इन में मुख्य मुरादाबाद जिले के कांठ गाँव की लाउड स्पीकर वाली घटना, सहारनपुर में सिख- मुस्लिम फसाद की घटना थी जिस में हिन्दुओं की तरफ से सब से अधिक दलित ही गिरफ्तार हुए थे तथा अन्य दलित लड़की और मुस्लिम लड़का या मुस्लिम लड़की और दलित लड़का वाली घटनाएँ शामिल हैं. इस प्रकार कम से कम उत्तर प्रदेश में तो भाजपा ने हिन्दू मुस्लिम फसाद के मामलों में दलितों को हिन्दू पक्ष का एक प्रमुख हिस्सा बना लिया है. इस से पहले भी भाजपा बाल्मीकियों, खटीकों और जाटवों का हिन्दू मुस्लिम फसाद में इस्तेमाल करती रही है.
भाजपा ने दलितों को आकर्षित करने के लिए दूसरा हथियार उन के ब्राह्मणीकरण का अपनाया है. इस द्वारा उस ने उन दलित उपजातियों में अपनी घुस पैठ बढ़ाई है जो अभी भी कट्टर हिन्दू हैं और दलितों की बड़ी उपजातियों के विरोध में रहती हैं. उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश में चमार/जाटव दलितों की सब से बड़ी उपजाति है और पासी, बाल्मीकि, धोबी और खटीक छोटी उपजातियां है. परम्परा से यह छोटी उपजातियां चमार/जाटव उपजाति से प्रतिस्पर्धा और प्रतिरोध में रही हैं. इसी लिए ये उपजातियां राजनीतिक तौर पर भी इस बड़ी उपजाति से प्रतिस्पर्धा में रही हैं. बसपा का सब से बड़ा आधार चमार/जाटव उपजाति रही है और यह छोटी उपजातियां बसपा के साथ थोड़ी हद तक ही जुडी थीं. यह उपजातियां बसपा से प्रतिक्रिया में भाजपा अथवा समाजवादी पार्टी के साथ रही हैं. दलितों के सामाजिक विभाजन का असर उन के राजनीतिक जुड़ाव पर भी दिखाई देता है. उत्तर प्रदेश में पिछले विधान सभा चुनाव में यह उप जातियां सपा की तरफ गयी थीं और मायावती से रुष्ट हो कर चमार/जाटव वोटर भी सपा की तरफ गए थे. पूर्व में कांग्रेस और भाजपा भी इन जातियों को सीमित सीमा में अपनी पार्टी में समाहित करने में सफल रही हैं. मायावती की गलत नीतियों के कारण इन उपजातियों में यह धारणा पनप गयी थी कि बसपा केवल चमारो/जाटवों की पार्टी है और इस का लाभ केवल उन्हीं तक सीमित है. इस आरोप में काफी सच्चाई भी है. अतः ये उप जातियां बसपा की जगह दूसरी पार्टियों में अपना स्थान ढूंढती रही हैं और इधर बसपा से लगभग अलगाव में चली गयी हैं जिस का खामियाजा मायावती को 2012 और 2014 के चुनाव में भुगतना पड़ा. यही स्थिति रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया के समय में थी. देश के दूसरे राज्यों में भी इसी प्रकार का सामाजिक और राजनैतिक विभाजन है. . महाराष्ट्र में महार दलितों की सब से बड़ी उपजाति है और चम्भार और ढेड छोटी उपजातियां हैं. वहां पर उसी प्रकार का सामाजिक और राजनैतिक विभाजन है. आन्ध्र प्रदेश में भी माला और मादिगा में सामाजिक और राजनैतिक विभाजन है. कर्नाटिक में भी ऐसा ही उपजाति बटवारा है. भाजपा की इन उपजातियों में काफी समय से पैठ रही है.
दलितों के इस राजनैतिक और सामाजिक बटवारे का कारण राजनैतिक आरक्षण भी है. वर्तमान संयुक्त मताधिकार प्रणाली के अंतर्गत आरक्षित सीटों पर वही दलित जीत पाता है जो सवर्ण जातियों का वोट प्राप्त कर सकता है. चूँकि सवर्ण वोट सवर्ण राजनैतिक पार्टियों के पास रहता है अतः वे जिस को चाहते हैं वह ही जीत पाता  है. यह व्यवस्था दलित पार्टियों की सब से बड़ी कमजोरी है. अतः यह देखा गया है अधिकतर आरक्षित सीटें सवर्ण पार्टियों द्वारा ही जीत ली जाती हैं. इसी लिए सवर्ण पार्टियाँ अपने स्वामिभक्त और हलके फुल्के दलितों को खड़ा करके आरक्षित सीटें जीत लेती हैं और दलित पार्टियों के अच्छे से अच्छे उमीदवार हार जाते हैं. इसी कुचक्र में डॉ. आंबेडकर को दो  बार हार का मुंह देखना पड़ा था. दरअसल अलग मताधिकार के अंतर्गत दलितों को राजनीतिक स्वतंत्रता का जो अधिकार मिला था उसे गाँधी जी ने अनुचित दबाव में पूना पैकट के अंतर्गत छीन लिया जिस का खामियाजा आज तक दलित भुगत रहे हैं. अब दलित राजनीतिक तौर पर बड़ी सवर्ण पार्टियों के गुलाम हैं और इस ने दलितों के अन्दर एक स्वार्थी और लम्पट तबके को पैदा कर दिया है जो चुनाव तो दलितों के नाम पर जीतता है परन्तु वफ़ादारी सवर्ण आकाओं की निभाता है. भाजपा ने भी इस चुनाव में इसी व्यवस्था का लाभ फायदा उठाया है और सब से अधिक आरक्षित सीटें जीती हैं और आगे भी काफी आशान्वित है.
दरअसल दलितों में शुरू से ही दो प्रकार की सांस्कृतिक  विचारधारा पनपती रही है. एक हिन्दू धर्म और ब्राह्मणवाद के खिलाफ और दूसरी उसकी पक्षधर. पुराने समय में भक्ति आन्दोलन और वर्तमान में अम्बेडकरवाद के प्रभाव में कुछ उपजातियां ब्राह्मणवाद के विरोध में खड़ी हुयी थीं और कुछ उपजातियां हिन्दू धर्म के दायरे में ही रहीं. पंजाब में आदि-धर्म आन्दोलन, उत्तर प्रदेश में आदि-हिन्दू आन्दोलन, आंध्र में आदि-आंध्र, तमिलनाडू में आदि-द्रविड़ आन्दोलन और बंगाल में नमोशूद्र आन्दोलन इस के प्रमुख आन्दोलन रहे हैं. बीसवीं सदी में डॉ. आंबेडकर के प्रभाव में हिन्दू धर्म के खिलाफ एक देश व्यापी आन्दोलन चला जिस की परिणति 1956 में हिन्दू धर्म का त्याग और बौद्ध धम्म का स्वीकार है. एक तरफ हिन्दू धर्म छोड़ कर बौद्ध धम्म ग्रहण करने वालों की संख्या में बहुत बड़ी वृद्धि हो रही है वहीँ दूसरी ओर दलितों की छोटी उपजातियों का ब्राह्मणीकरण हो रहा है.
हाल में आर.एस.एस. ने दलितों की छोटी हिन्दू उप-जातियों को पटाने के लिए तीन पुस्तकों का विमोचन किया है जिस में कहा गया है कि खटीक, बाल्मीकि और चमार पूर्व में क्षत्री जातियां थीं परन्तु मुसलामानों ने उन्हें अपना गुलाम कर प्रताड़ित किया और नीच बना दिया और भाजपा उन्हें फिर से क्षत्री बना कर सम्मान दे रही है. इस से कुछ दलित उपजातियों के भाजपा के जाल में फंसने की पूरी सम्भावना है क्योंकि एक तो वे अभी तक हिन्दू बनी हुयी हैं और दूसरे वे बड़ी उपजातियों से प्रतिक्रिया में रहती हैं. इस के इलावा वर्तमान चुनाव प्रक्रिया से भाजपा उन्हें आरक्षित सीटें जितवा कर राजनीतिक लाभ भी पहुंचाने की स्थिति में है. इस हालत के लिए दलितों की राजनितिक पार्टियाँ भी काफी हद तक जिम्मेवार हैं जिन्होंने इन उपजातियों को उचित प्रतिनिधित्व न देकर भाजपा को उन्हें अपनी तरफ आकर्षित करने का अवसर दिया है जिस से हिंदुत्व मज़बूत हुआ है. एक तरीके से जातिवादी राजनीति भी हिंदुत्व को ही मज़बूत करती है क्योंकि धर्म की राजनीति जाति को माध्यम  बना कर वोटों का ध्रुवीकरण करती है.
अतः दलितों को जाति की राजनीति के स्थान पर मुद्दों की राजनीति को अपनाना होगा जो जाति को तोड़ कर दलितों और गैर दलितों को एकजुट कर सकती है. हिंदुत्व दलितों के लिए सब से बड़ा खतरा है क्योंकि हिंदुत्व वर्ण वयस्था का पक्षधर है जो जाति व्यवस्था को मज़बूत करता है. जाति व्यवस्था शोषण की व्यवस्था है जिस का सब से बड़े शिकार दलित ही हैं. अतः दलितों को आर.एस.एस. द्वारा जाति उच्चीकरण के नाम पर फैंके जा रहे हिंदुत्व के जाल में फंसने से बचना होगा. उन्हें जाति की राजनीति के स्थान पर मुद्दों की राजनीति को अपनाना होगा. उन्हें अपने फायदे के लिए हिंदुत्ववादी ताकतों के साथ जाति के नाम पर सौदा करने वाले दलित नेताओं से भी बचना होगा. उनकी मुक्ति तो डॉ. आंबेडकर के जाति विनाश के आन्दोलन को मज़बूत करने से ही संभव है न कि जाति को सुदृढ़ करने से. धर्म आधारित हिंदुत्व की जातिवादी राजनीति उन्हें गुलामी की ओर ही ले जायेगी मुक्ति की ओर नहीं. उन्हें डॉ. आंबेडकर के भारत में जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की स्थापना के लक्ष्य को पूरा करने में अग्रगणी भूमिका निभानी होगी.       

  

रविवार, 26 अक्टूबर 2014

दलित बनाम बहुजन राजनीति





                                                दलित बनाम बहुजन राजनीति
                                               -एस.आर. दारापुरी राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
            पिछले काफी समय से राजनीति में दलित की जगह बहुजन शब्द का इस्तेमाल हो रहा है. बहुजन अवधारणा  के प्रवर्तकों के अनुसार बहुजन में दलित और पिछड़ा वर्ग शामिल हैं. कांशी राम के अनुसार इस में मुसलमान भी शामिल हैं और इन की सख्या 85% है. उन की थ्योरी के अनुसार बहुजनों को एक जुट हो कर 15% सवर्णों से सत्ता छीन लेनी चाहिए. वैसे सुनने में तो यह सूत्र बहुत अच्छा लगता है और इस में बड़ी संभावनाएं भी लगती हैं. परन्तु देखने की बात यह है कि बहुजन को एकता  में बाँधने का सूत्र क्या है. क्या यह दलितों और पिछड़ों के अछूत और शुद्र होने का सूत्र है या कुछ और अछूत और शुद्र असंख्य जातियों में बटे हुए हैं और वे अलग दर्जे के जाति अभिमान से ग्रस्त हैं. वे ब्राह्मणवाद (श्रेष्ठतावाद) से उतने ही ग्रस्त है जितना कि वे सवर्णों को आरोपित करते हैं. उन के अन्दर कई तीव्र अंतर्विरोध हैं. पिछड़ी जातियां आपने आप को दलितों से ऊँचा मानती हैं और वैसा ही व्यवहार भी करती हैं. वर्तमान में दलितों पर अधिकतर अत्याचार उच्च जातियों की बजाये पिछड़ी संपन्न (कुलक) जातियों द्वारा ही  किये जा रहे हैं. अधिकतर दलित मजदूर हैं और इन नव धनाडय जातियों का आर्थिक हित मजदूरों से टकराता है. इसी लिए मजदूरी और बेगार को लेकर यह जातियां दलितों पर अत्याचार करती हैं. ऐसी स्थिति में दलितों और पिछड़ी जातियों में एकता किस आधार पर स्थापित  हो सकती है? एक ओर सामाजिक दूरी है तो दूसरी ओर आर्थिक हित का टकराव. अतः दलित और पिछड़ा या अछूत और शूद्र होना मात्र एकता का सूत्र नहीं हो सकता. यदि राजनीतिक स्वार्थ को लेकर कोई एकता बनती भी है तो वह स्थायी नहीं हो सकती जैसा कि व्यवहार में भी देखा गया है.
           अब अगर दलित और पिछड़ा  का वर्ग विश्लेषण किया जाये तो यह पाया जाता है कि  दलितों के अन्दर भी संपन्न औए गरीब वर्ग का निर्माण हुआ है. पिछड़ों के अन्दर तो अगड़ा पिछड़ा वर्ग  और अति पिछड़ा वर्ग का विभेद तो बहुत स्पष्ट है. पिछले  कुछ समय से  दलित और पिछड़े वर्ग के संपन्न वर्ग ने ही आर्थिक विकास का लाभ उठाया है और राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी ही प्राप्त की है. इस के विपरीत दलित और पिछड़ा वर्ग का बहुसंख्यक हिस्सा आज भी बुरी तरह से पिछड़ा हुआ है. इसी विभाजन को लेकर अति-दलित और अति-पिछड़ा वर्ग की बात उठ रही है. इस से भी स्पष्ट है कि बहुजन की अवधारणा केवल हवाई अवधारणा है. इसी प्रकार मुसलमानों के अन्दर भी अशरफ, अज्लाफ़ और अरजाल का विभाजन है जो कि पसमांदा मुहाज (पिछड़े मुसलमान) के रूप में सामने आ रहा है.
            अब प्रश्न पैदा होता है इन वर्गों के अन्दर एकता का वास्तविक सूत्र क्या हो सकता है? उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों के अन्दर अगड़े पिछड़े दो वर्ग हैं जिन के अलग अलग आर्थिक और राजनीतिक हित हैं और इन में तीखे अन्तर्विरोध तथा टकराव भी है. अब तक इन वर्गों का प्रभुत्वशाली तबका जाति और धर्म के नाम पर पूरी जाति/वर्ग और सम्प्रदाय का नेतृत्व करता आ रहा है और इसी तबके ने ही  विकास का जो भी आर्थिक और राजनीतिक लाभ हुआ है उसे  उठाया है. इस से इन के अन्दर जाति/वर्ग विभाजन और टकराव तेज हुआ है. विभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ इस जाति/वर्ग विभाजन का लाभ उठाती रही हैं परन्तु किसी भी पार्टी ने न तो इन के वास्तविक मुद्दों को चिन्हित किया है और न ही इन के उत्थान के लिए कुछ किया है. हाल में भाजपा ने इन्हें हिन्दू के नाम पर इकट्ठा करके इन का वोट बटोरा है. अगर देखा जाये तो यह वर्ग सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तौर पर पिछड़ा हुआ है. इन वर्गों का वास्तविक उत्थान उन के पिछड़ेपन से जुड़े हुए मुद्दों को उठाकर और उन को हल करने की नीतियाँ बना कर ही किया जा सकता है. अतः इन की वास्तविक एकता इन मुद्दों को लेकर ही बन सकती है न कि जाति और मज़हब को लेकर. यदि आर्थिक और राजनीतिक हितों की दृष्टि से देखा जाये तो यह वर्ग प्राकृतिक दोस्त हैं क्योंकि इन की समस्यायें एक समान हैं और उन की मुक्ति का संघर्ष भी एक समान ही है. बहुजन के छाते के नीचे अति पिछड़े तबके के मुद्दे और हित दब जाते हैं.
           अतः इन अति पिछडे तबकों की मजबूत एकता स्थापित करने के लिए जाति/मज़हब पर आधारित बहुजन की कृत्रिम अवधारणा के स्थान पर इन के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पिछड़ेपन से जुड़े मुद्दे उठाये जाने चाहिए. जाती और धर्म की राजनीति हिंदुत्व को ही मज़बूत करती है. इसी ध्येय से आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ़) ने अपने एजंडे में सामाजिक न्याय के अंतर्गत:
          (1) पिछड़े मुसलमानों का कोटा अन्य पिछड़े वर्ग से अलग किए जाने, धारा 341 में संशोधन कर दलित मुसलमानों व ईसाइयों को अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने. सच्चर कमेटी व रंगनाथ मिश्रा कमेटी की सिफारिशों को लागू किए जाने; (2) अति पिछड़ी जातियों को अन्य पिछड़े वर्ग में से अलग आरक्षण कोटा दिए जाने; (3) पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था को जल्दी से जल्दी बहाल किए जाने ; (4) एससी/एसटी के कोटे के रिक्त सरकारी पदों को विशेष अभियान चला कर भरे जाने; (5) निजी क्षेत्र में भी दलितों, आदिवासियों, अन्य पिछड़ा वर्ग व अति पिछड़ा वर्ग को आरक्षण दिए जाने; (6) उ0 प्र0 की कोल जैसी आदिवासी जातियों को जनजाति का दर्जा दिए जाने; (7) वनाधिकार कानून को सख्ती से लागू करने तथा (8) रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाने आदि के मुद्दे शामिल किये हैं. इसके अतिरिक्त  साम्प्रदायिकता पर रोक लगाने के लिए कड़ा कानून बनाकर कड़ी कार्रवाई किये जाने और आतंकवाद/ साम्प्रदायिकता के मामलों की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट द्वारा किये जाने की मांग भी उठाई है. इन तबकों को प्रतिनिधित्व देने के ध्येय से  पार्टी ने अपने संविधान में दलित,पिछड़े, अल्पसंख्यक और महिलायों के लिए 75% पद आरक्षित किये हैं.
           आइपीएफ बहुजन की जाति आधारित राजनीति के स्थान पर मुद्दा आधारित राजनीति को बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील है जैसा कि बाबा साहेब का भी निर्देश था.
          नोट: कृपया आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए www.aipfr.org पर देखें.
 


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  रेट्टाइमलाई श्रीनिवासन ( 1859-1945) - एक ऐतिहासिक अध्ययन डॉ. के. शक्तिवेल , एम.ए. , एम.फिल. , एम.एड. , पीएच.डी. , सहायक प्रोफेसर , जयल...