गुरुवार, 3 अक्टूबर 2013

क्या शिक्षा क्षेत्र में आरक्षण से मेरिट का ह्रास होता है?



क्या शिक्षा क्षेत्र में आरक्षण से मेरिट का ह्रास होता है?
एस आर दारापुरी आई. पी, एस (से.नि.) 

आरक्षण विरोधी शिक्षा क्षेत्र में आरक्षण के विरुद्ध यह तर्क देते हैं कि इस से दलित और पिछड़े वर्ग के छात्रों के कम अंकों से  प्रवेश पाने से मेरिट का ह्रास होता है. इस संद्दर्भ में हाल में किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय, लखनऊ (केजीएमयू) के एम.बी.बी.एस डिग्री के दीक्षांत समारोह में आये परिणाम आरक्षण विरोधियों के इस कुतर्क का बिलकुल सही उत्तर है. इस समारोह में वंदना नाम की दलित छात्रा ने कुल 32 मैडलों में से सब से अधिक 17 मैडल जीते जिन में तीन शीर्ष मैडल भी शामिल हैं. यह भी सही है कि उसने में एम.बी.बी.एस में आरक्षण द्वारा प्रवेश प्राप्त किया था. यदि आरक्षण विरोधियों का आरक्षण से मेरिट के ह्रास का तर्क सही होता तो वंदना कभी भी मैडल जीतना तो दूर आसानी से पास भी न हो पाती. अतः इस ताजा उदहारण से यह स्पष्ट है का आरक्षण के कारण मेरिट में ह्रास का तर्क पूरी तरह से  खोखला और पूर्वाग्रह ग्रस्त है. इस के विपरीत सच्चाई यह है कि उच्च शिक्षण संस्थानों में दलित वर्ग के छात्रों के साथ घोर भेद भाव किया जाता है और उन्हें पढ़ने से हतोत्साहित किया जाता है. उन्हें वार वार विभिन्न विषयों में जान-बूझ  कर फेल किया जाता है. इन्हीं कारणों से आईआईटी और एम्स जैसे संस्थानों में यदा-कदा दलित छात्र उत्पीड़न और उत्साहभंग किये जाने के कारण अवसादग्रस्त हो कर आत्म हत्याएं करते रहते हैं.
अब यहाँ तक शिक्षा क्षेत्र में  मेरिट की बात है वह तो अवसर की उप्लब्धत्ता, अनुकूल परिस्थितियां और मेहनत पर निर्भर करती है. शिक्षा क्षेत्र में आरक्षण केवल प्रारंभिक स्तर पर प्रवेश का अवसर उपलब्ध कराता है. उस के बाद तो छात्र को अपनी योग्यता से ही सामान्य  परीक्षा पास करनी होती है क्योंकि कि परीक्षा के आधार पर मिलने वाली डिग्री में कोई भी आरक्षण नहीं होता है. यह भी एक नग्न सत्य है कि व्यवसायिक संस्थानों में छात्रों के मूल्यांकन, खास करके साक्षात्कार आधारित मूल्यांकन, में भारी भेदभाव और पक्षपात किया जाता है जिस का सब से अधिक शिकार दलित छात्र ही होते हैं. कई अध्ययनों से यह पाया गया है कि लिखित परीक्षायों में जहाँ पर छात्र की पहचान ज़ाहिर नहीं होती वहां पर दलित और पिछड़ी जातियों के छात्रों के अंक सामान्य जातियों के छात्रों से किसी भी तरह कम नहीं होते  बल्कि उन से अधिक ही होते हैं. परन्तु जहाँ जहाँ पर आन्तरिक मूल्यांकन और फेस टू फेस मूल्यांकन की व्यवस्था है वहां वहां पर इस वर्ग के छात्रों के अंक सामान्य वर्ग के छात्रों से कम हो जाते हैं. इस के कारण किसी से छिपे हुए नहीं हैं. इस के अतिरिक्त यह तथ्य भी उभर कर आया है कि किसी भी कोर्स के अंत में परीक्षाफल से यह पाया गया है कि दलित और पिछड़े वर्ग के छात्रों की शैषिक परफॉरमेंस में प्रवेशस्तर की अपेक्षा अंतिम परीक्षा में सामान्य जातियों के छात्रों के मुकाबले में सापेक्ष सुधार (relative improvement) अधिक ऊँचा होता है.   
अब अगर वंदना के मामले को ही देखा जाये तो उस से यह विदित होता है कि उस ने भी आरक्षण के आधार पर एम.बी.बी.एस कोर्स में प्रवेश पाया था और उसे कोटे वाली होने के ताने भी सहने पड़े थे परन्तु उस ने अपनी मेहनत से यह सिद्ध कर दिया है कि अवसर और अनुकूल वातावरण मिलने पर दलित छात्र भी वैसी ही योग्यता प्राप्त कर सकते हैं जिस का दावा उच्च जाति के छात्र करते हैं. इस अवसर पर मैं आत्मप्रशंसा के लिए नहीं बल्कि दलित छात्रों की योग्यता की दृष्टि से अपनी उदाहरण देना चाहूँगा. मेरे माता पिता भी भूमिहीन मजदूर थे परन्तु  मुझे पढ़ने  की लगन थी. मैं प्राईमरी स्तर से ही पढ़ने में बहुत तेज़ था. मैंने 1958  में पंजाब शिक्षा विभाग की मिडिल स्टैण्डर्ड परीक्षा  में 700 अंकों में से 566 अंक प्राप्त करके पंजाब के ग्रामीण क्षेत्र के सभी स्कूलों में प्रथम स्थान प्राप्त किया था. इसी प्रकार 1960  में मैं ने पंजाब विश्वविद्यालय की मैट्रिक परीक्षा में 850 अंकों में से 697 अंक प्राप्त करके सम्पूर्ण पंजाब में मेरिट में 35वां स्थान प्राप्त किया था और मेरिट स्कालरशिप जीता था.  इस परीक्षा में मैंने अपने स्कूल के मैट्रिक परीक्षा के 680 अंकों के पहले के रिकार्ड को तोड़ कर नया रिकार्ड स्थापित किया था जो आज तक चल रहा है. मेरी इस उपलब्धि में मेरे शिक्षकों और स्कूल के अच्छे  वातावरण का बहुत बड़ा योगदान था जिस ने मुझे मेहनत करके बहुत अच्छे अंक प्राप्त करने का मौका दिया.  बाद में सिविल सेवा परीक्षा (1972) आई. पी. एस में भी मैंने 60 अभ्यर्थियों में आधों से ऊपर सामान्य मेरिट में स्थान प्राप्त किया था. इस से स्पष्ट है कि अवसर और अनुकूल वातावरण मिलने पर कोई भी व्यक्ति  मेहनत करके बहुत अच्छी मेरिट दिखा सकता है.
    अब यह भी वैज्ञानिक तौर पर सिद्ध हो चुका है कि जन्म के समय सब बच्चों का आई-क्यू बराबर होता है जब तक कि उस में कोई मानसिक विकलांगता अथवा जन्मजात कमी न हो. बाद में बच्चे के आई-क्यू में यदि कोई अंतर आता है तो वह पारिवारिक परिस्थितियों के कारण आता है. वैसे यह भी पाया गया है कि आई-क्यू का मूल्यांकन भी कोई ईमानदार मूल्यांकन नहीं है. वह भी कई प्रकार के पूर्वाग्रहों और चालबाजियों से ग्रस्त होता है. अतः यह कहना गलत है कि दलित वर्ग के छात्र उच्च वर्ग के छात्रों से आई-क्यू में किसी भी तरह से कम होते है. अगर कोई कमी है तो वह है अवसर और अनुकूल वातावरण की जिसे दूर करके सभी को आगे बढ़ने का अवसर दिया जाना राष्ट्रहित में है.
अब अगर मेरिट देखनी हो तो तमाम ऐसे उदाहरण मिलेंगे जिस में अनुकूल अवसर मिलने पर दलित वर्ग के लोगों ने उच्च मेरिट का प्रदर्शन किया है.  हमारे देश के संविधान निर्माता डॉ. आंबेडकर इस की एक चमकती हुयी उदाहरण हैं जिन की गिनती दुनियां के चंद सब से अधिक शिक्षित व्यक्तियों में की जाती है. इसी लिए डॉ. आंबेडकर ने एक वार कहा था कि मैं अकेला ही 6 ग्रेजुएट्स के बराबर हूँ. एक वार उन्होंने सवर्ण हिन्दुओं की मेरिट पर कटाक्ष करते हुए जवाहर लाल नेहरु के व्यक्तिगत सचिव रहे जॉन मथाई से कहा था, “हिन्दुओं ने वेद व्यास से वेद लिखवाने का काम लिया जो कि उच्च जाति से नहीं था. हिन्दुओं ने महाभारत का महाकाव्य वाल्मीकि से लिखवाया जो कि अछूत था. अब  हिन्दू संविधान लिखवाने का काम मुझ से ले रहे हैं.” इसी लिए मेरिट का दावा करने और शिखा क्षेत्र में आरक्षण से मेरिट में गिरावट आने का आरोप लगाने वालों को समझ लेना चाहिए कि मेरिट किसी जाति या वर्ग की बपौती नहीं है. समान अवसर और अनुकूल वातावारण मिलने पर कोई भी व्यक्ति मेहनत करके उच्च मेरिट प्राप्त कर सकता है.     

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